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नियममार
एगो य मरदि जीवो, एगो य जीवदि सयं । एगस्स जावि मरणं, एगो सिज्मदि पीरयो ॥१०॥
एकश्च म्रियते जीवः एकश्च जीवति स्वयम् । एकस्य जायते मरणं एकः सिध्यति नीरजाः ॥१०१।। इस जग में यह जीब, एकाकी मरता है । स्वयं प्रकेला पाप, पुनः जनम धरता है ।। स्वयं अकेले को हो, होता जनम मरण नित ।
स्वयं कमरज टोन, होता सिद्धबधू प्रिय ।।१०१.11 • - - - - - - - - . अज्ञानी लोगों के लिये समझने में गहन ही है-अत्यन्त कठिन है । अपने ज्ञान रूपी दीपक मे जिसने पापरूपी अंधकार को नष्ट कर दिया है, ऐसा वही आत्मा सज्जन पुरुषमाधुओं के हृदय कमरमपी महन में निश्चलम्प मे विराजमान है ।
भावार्थ- यह आत्मा मिद्धावस्था में पूर्णतया निर्मल हो चका है, अर्हन्त । अवस्था में चार अघातिया कर्मों के शेष रहने से कथचित् असिद्धत्व अवस्था की अपेक्षा से अनिर्मल भी होने से निर्मलानिमल है अथवा वीतरागी मुनि के शुद्धोपयोग रूप ध्यान में-उपयोग में निर्मल होने से भी निर्मलानिर्मल है अथवा चतुर्थ गुणस्थान से लेकर छ। गुणस्थान तक सराग अबग्था होते हुए पुण्य जीव कहलाने से और अंश-अंशरूप । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याम्यान आदि कपायों का अभाब होने से निर्मल भी है अतः उनकी आत्मा भी निर्मलानिमल है । और पहले गुणस्थान से लेकर तृतीय गुणस्थान तक पाप जीव होने से अनिर्मल ही है ।
अथवा शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से मंसारी जीव भी शुद्ध ही है अत: इन नय की अपेक्षा में सभी जीव राशि निर्मल हैं, व्यवहारनय की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि आत्म से लेकर संयन आदि आत्मा निर्मलानिर्मल है और शेष संसारी जीव अनिर्मल हैं।
गाथा १०१ ___ अन्वयार्थ- [जीवः एकः च म्रियते] जीव अकेला ही मरता है, [स्वयं च एक जीवति] और स्वयं अकेला ही जन्मता है, [एकस्य मरणं जायते] अकेले के ही म। होता है [एकः नीरजाः सिध्यति ] अकेला ही रज-कर्म धूलि रहित सिद्ध होता है।