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नियममार
स्वभावत्वात् निराधरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितः कारणपरमात्मा, ये शुभाशुभकर्मसंयोग संभवाः शेषा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाः स्वस्वरूपाबाह्यास्ते सः, इति मम निश्चयः ।
( मालिनी) अथ मम परमात्मा शाश्वतः कश्चिदेकः सहजपरमचिच्चिन्तामणिनित्यशुद्धः निरवधिनिजदिव्यज्ञानहाभ्यां समुद्धः [ समृद्धः] किमिह बहुविकल्पमें फलं बाह्यभावः ॥१३॥
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स्ट पास होने से आपरा रहित से ज्ञान और दर्शनम्प लक्षण से लक्षित कारण परमात्मा है । शेप जो शुभ-अशुभ कर्म के मुंयोग से उत्पन्न होने वाले बाह्य बा। अभ्यन्तररूप परिग्रह हैं, वे सभी मेरे अपने स्वरूप से बहिभूत हैं, ऐसा मे निश्चय है।
विशेषार्थ—निश्चयनय में इस जीव में शरीर के लिए कारणभूत ऐसे नवा कम, नावकर्म नहीं है इसलिय बह आन्मा एक-असहाय-अवेला तथा सदा ही सहा माझज्ञान चतना का अनुभव कर रहा है. इसलिये शाश्वत है। वैसे ही शुद्धनिश्चम इस जीव को न कभी कर्मोपाधि हई थी, न है. न होगी इसीलिये वह पूर्णज्ञानदय म्बम्प है । से मेरी आत्मा के वर्तमान में जो भी भाव दीख रहे हैं ब सत्र व्यवहारला से कर्मापाधिजन्य होने से मुक्त से भिन्न ही हैं ।
[टीकाकार मुनिराज इसी बात को कलश काव्य से दिग्वाने हैं-]
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(१३८) लोकार्थ- मेरा परमात्मा शाश्वत है, कोई एक अदभुत है, सह परम चैतन्य चिंतामणिरूप है. नित्य ही शुद्ध है और अनन्त निजदिव्य ज्ञानवर्मन ममद्ध है, इस अवस्था में पुन बहुत से भेदम्प इन बाह्य भावों में मुझे क्या फल है। अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं हैं।
भावार्थ-- शुद्ध निश्चयनय के अवलम्बन से चिंतामणि स्वरूप आत्मा मम लेने के बाद मुझे बाह्य पदार्थों से कुछ भी नहीं होगा।