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निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार
[ २७५. जं किंचि में दुच्चरितं, सव्वं तिविहेण बोसरे । सामाइयं तु तिविहं, करेमि सव्वं रिणरायारं ॥१०३॥
यत्किचिन्मे दुश्चरित्रं सर्व त्रिविधेन विसृजामि । सामायिकं तु त्रिविधं करोमि सर्व निराकारम् ॥१०३॥
दुश्चरित्र मय दोष, जो कुछ होता मुझसे । तजता हूं उन सवं, को मैं मनवचतन मे ।। सामायिक अय भेद, कहीं आप में जो भी ।
कारता हूं मैं शुद्ध, निराकार सबको हो ।।१०।। आत्मगतोषानमुक्त्युपायकथनमिदम् । भेदविज्ञानिनोऽपि मम परमतपोधनस्य पूर्वसंचितकर्मोदयबलाच्चारित्रमोहोवये सति यत्किचिदपि दुश्चरित्रं भवति चेतत् सर्व मनोवास्कायसंशुद्धचा संत्यजामि । सामायिकशब्देन तावच्चारित्रमुक्तं सामायिकछेदोपस्थापनपरिहार विशुद्धधभिधानमेदात्रिविधम् । अथवा जधन्यरत्नत्रयमुत्कृष्टं करोमि, -.. - . .. .- --.. --
गाथा १०३ ___ अन्वयार्थ- [स्किचित् मे चरित्रं] जो किचित् भी मंग दृश्चरित्र है [ सर्व विविधनव्युत्सृजामि'] उन सभी को मैं मन बचन और काय में छोड़ना है [तु त्रिविधं सामायिकं] और त्रिविध सामायिक चारित्र को | सर्व निराकारं करोमि ] सभी को निराकार करता हूं।
टोका-आत्मान दोपों से निमुक्त होने के उपाय का यह कथन है। मैं परमतपोधन भेदविज्ञानी हं फिर भी मेरे पूर्वसंचित कर्मोदय के बल म चारित्रमोह का
उदय होने पर जो कुछ भी दुश्चरित्र-चारित्र में दोष यदि हो जाता है, तो मैं उस सभी । दुश्चरित्र का मन, वचन, काय की सम्यक् शुद्धिपूर्वक त्याग करता हूं। यहां पर
सामायिक शब्द से चारित्र को कहा है, ऐसे सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि इन नाम वाले तीन भेद से यह चारित्र तीन प्रकार है अथवा मैं जघन्य रत्नत्रय
१. अन्यत्र विसृजामि पाठ है। किंतु ऐसा ही ठीक प्रतीत होता है ।