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नियमसार नवपदार्थपरद्रव्यश्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं रत्नत्रयं साकारं, तत् स्वस्वरूपश्रद्धान-- परिज्ञानानुष्ठानरूपस्वभावरलत्रयस्वीकारेण निराकारं शुद्धं करोमि इत्यर्थः । किच भेवोपचारचारित्रम् अभेदोपचारं करोमि, अभेदोपचारम् अभेदातुपचारं करोमि इति त्रिविधं सामायिकमुत्तरोत्तरस्वीकारेण सहजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपसहजनिश्चयः चारित्रं, निराकारतत्त्वनिरतत्वान्निराकारचारित्रमिति ।
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को उत्कृष्ट करता हूं, नवपदार्थ मप जो परद्रव्य है उनका श्रद्धान परिज्ञान और आचरण म्प जो भाकार रत्नत्रय है वह व्यवहार रत्नत्रय है, उसको अपने स्वरूप के श्रद्धानज्ञान तथा अनुष्ठानरूप स्वभाव रत्नत्रय की स्वीकृति पूर्वक निराकार-शुद्ध करता हूं अर्थात व्यवहार रत्नत्रय के बल से निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त करता है।
और इमरी नरह से-भेदोपचार चारित्र को अभेदोपचार रूप करता हूं और अभेदोपचार चारित्र का अभेदानुपचार चारित्रम्प करता हूँ, इस तरह तीन प्रकार गामायिक को उन्नरोनर स्वीकार पूर्वक सहजपरमतत्त्व में अविचल स्थितिरूप नहई । निश्चयचारित्र होता है, यही निराकार चारित्र कहलाता है क्योंकि वह निगकार नता में निरन है।
विशेषार्थ-यहां पर निश्चय रन्नत्रय को निराकार गामायिक माग कहा है। वास्तव में वीतराग नित्रि कला समाधि की अवस्था में सम्पूर्ण बाह्य विकल्पों का अभाव | हो जाने से आत्मा निर्विकल्प-निराकार हो जाता है, उस अवस्था में उसी आत्म ताई में तल्लीन होने से यह चारित्र भी निराकार मंजक हो जाता है। टीकाकार ने * "विविध सामायिक उत्तरोत्तर स्वीकारण' इस पद मे क्रम को स्पष्ट कर दिया। अर्थात भेदोपचार नामवाले व्यवहाररत्नत्रय मे अभेदोपचाररूप निश्वयरला प्रारम्भ होता है पुनः उस अभंद उपचार से अभेदअनुपचार रूप निश्चयरत्नत्रय परिणः हो जाती है । ये क्रम में पूर्व-पूर्व के आगे-आगे के लिये बनते हैं।
ऐस ही अन्यत्र भापाकारों ने कहा है१भेदोपचारका चारित्रव्यवहार महावतादि पालन है, अभेदोपचार
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१. अ. झीनलप्रसाद कृत हिंदी में पृ. २३० ।