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नियमसार
चतुराहारविवर्जनप्रत्याख्यानम् । किं च पुनः व्यवहारप्रत्याख्यानं कुदृष्टेरपि पुरुषस्य चारित्रमोहोदय हेतु मृतद्रव्यभावकर्मक्षयोपशमेन क्वचित् कदाचित्संभवति । अत एव निश्चय प्रत्याख्यानं हितम् अत्यासन्नभव्य जीवानाम्; यतः स्वर्णनामधेयधरस्य पाषाणस्योपादेयत्वं न तथांधपाषाणस्येति । ततः संसारशरीरभोगनिवेंगता निश्चय प्रत्याख्यानस्य कारणं, पुनर्भादिकाले संभाविनां निखिलमोहरागढ पादिविविधविभावानां परिहारः परमार्थप्रत्याख्यानम्, अथवानागतकालोद्भयविविधान्तर्जल्पपरित्यागः शुद्धनिश्चय प्रत्यायानम् इति ।
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होने से उत्पन्न हुए शुद्धभाव से सहित तथा संसार के दुःखों से भयभीत हुए ऐसे मुनिराज के व्यवहारथ से चतुराहार त्याग रूप प्रत्याख्यान होता है ।
किन्तु यह व्यवहार प्रत्यास्थान मिध्यादृष्टि पुरुषों के भी चारित्रमोह के उदय में कारणभुत द्रव्य और भावकर्म के क्षयोपशम से क्वचित् कदाचित् संभव है, इसलिये अति निकट भव्य जीवों के लिए निश्चय प्रत्याख्यान ही हितरूप है, क्योंकि स्वर्ण नामको घरते वाला ऐसा स्वर्णपापाण ही उपादेयभुत है न कि उसीप्रकार से पापाण | अतः संसार शरीर और भोगों से निर्देगता - विरक्तता निश्चय प्रत्याख्यान का कारण है, और पुनः भविष्यकाल में होने वाले सम्पूर्ण मोह-राग-द्वेष आदि विविध विभावों का त्याग होना परमार्थप्रत्याख्यान है, अथवा भविष्यकाल में होने वाले विविध अन्तर्जल्पों का परित्याग शुद्ध निश्चय प्रत्याख्यान है 1
विशेषार्थ - यहां ऐसा बताया है कि व्यवहार प्रत्याख्यात मिथ्यादृष्टि के भी हो सकता है इसलिये निश्चय प्रत्याख्यान सर्वथा हितरूप है। इसमें ऐसा भी समझ लेना है कि व्यवहार प्रत्याख्यान के बिना आज तक निश्चय प्रत्याव्यान न हुआ है और न होगा ही, हां, इतना अवश्य है कि व्यवहार को साधन और निश्वय को साध्य समझना चाहिए। यहां पर वैसे चार प्रकार का प्रत्याख्यान बनाया गया है । प्रथम व्यवहार प्रत्याख्यान है जिसमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की कोई विवक्षा नहीं है, मात्र, चतुराहार त्यागरूप है। दूसरा संसार शरीर और भोगों के त्यागरूप जो कि निश्वय प्रत्याख्यान का कारण है । तीसरा भविष्य में समस्त विभावों के त्यागरूप हैं जो कि परमार्थ प्रत्याख्यान नाम वाला है, यह सातवें से प्रारम्भ हो जाता है और चांपा