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निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार
( हरिणी )
जयति सततं प्रत्याख्यानं जिनेन्द्रमतोद्भवं परमयं मिनामेतनिर्धाणसौख्यकरं परम् । सहजसमता देवीसत्कर्णभूषणमुच्चकैः मुनि शृणुते दीक्षाकान्तातियौवनकारणम् ॥ १४२ ॥
एवं भेदभासं, जो कुव्वइ जीवकम्मरणो णिच्चं । पच्चक्खाणं सक्कवि, धरिदु सो संजदो रिणयमा ॥ १०६ ॥ |
एवं भेदाभ्यासं यः करोति जीवकर्मणोः नित्यम् । प्रत्याख्यानं शक्तो धतु स संयतो नियमात् ॥११०६॥
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भविष्यकालीन समस्त अन्तर्जल्पों से भी शून्य निर्विकल्परूप हैं जो कि शुद्ध निश्चय प्रत्याख्यान कहलाता है। यह श्रेणी में ही संभव है ।
[ अब टीकाकार प्रत्याख्यान की विशेषता प्रगट करते हुए कहते हैं- 1
( १४२ ) श्लोकार्थ -- जिनेन्द्र भगवान के मत में होने वाला प्रत्याख्यान सदैव जयशील हो रहा है । यह परम संयमियों के लिये निर्वाण सौख्य को करने वाला है, उत्कृष्ट है, और अतिशयरूप से सहज समता देवी के सुन्दर कानों का आभूषण है । हे मुनिने ! गुतो यह आपकी दीक्षारूपी प्रिय पत्नी के अतिशयरूप यौवन का कारण है ।
भावार्थ-यौवन से सहित स्त्री अपने पति को जितना सुख प्राप्त कराती है उतना बाला स्त्रीया वृद्धा स्त्री से नहीं होता है, इसीलिये टीकाकार ने प्रलोभन रूप शब्दों में कहा है कि है मुनिराज ! यह प्रत्याख्यान तुम्हारी दीक्षा के जीवन में अत्यधिक हितकर होने से अत्यधिक सुखदायी है ।
गाथा १०६
अन्वयार्थ – [ एवं यः ] इसप्रकार से जो साधु, [ नित्यं ] नित्य ही, [ जीवकर्मणोः भेदाभ्यासं ] जीव और कर्म के भेद का अभ्यास, [ करोति ] करता है, [ सः