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निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार
एको मे सासदो अप्पा, गाणदंसरगलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खरमा ।। १०२ ।।
कथन है ।
एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शन लक्षरणः ।
शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ १०२ ॥
मेरा आत्मा शुद्ध, शाश्वत एक अकेला |
दर्शन ज्ञान स्वरूप, नहि उसमें कुछ भेला ॥
सभी पर भात्र, मुरुमं वाक्य बताये । वे सब जड़ संयोग, ने उत्पन्न कहाये ।।१०२ ॥
[ २७३
एकत्व भावनापरिणतस्य सम्यग्ज्ञानिनो लक्षणकथनमिदम् । अखिलसंसृतिनंदनतमूलालवालांभः पूरपरिपूर्णप्रणालिका वत्संस्थितकलेवरसम्भवहेतुभूत द्रव्य भावकर्माभावावेकः, स एव निखिलक्रियाकांडाडंबर विविधविकल्पकोलाहल निर्मु क्तसहजशुद्धज्ञानचेतनामतीन्द्रियं भुजानः सन् शाश्वतो भूत्वा ममोपादेयरूपेण तिष्ठति यस्त्रिकालनिरुपाधि
गाथा १०२
अन्वयार्थ - [ मे आत्मा एकः शाश्वतः ] मंग आत्मा एकाकी है, नाश्वत है,
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[ ज्ञानदर्शन लक्षण: ] ज्ञान और दर्शनस्वरूप है [शेषा: ] शष [ संयोगलक्षणाः] संयोग से उत्पन्न होनेरूप लक्षण वाले [ सर्वे भावाः ] सभी भाव-पदार्थ [ मे बाह्याः ] मेरे से बाह्य हैं।
टीका - एकत्व भावना से परिणत हुए सम्यग्जाती के स्वरूप का यह
सकल संसार नंदनवन के वृक्षों की जड़ के आसपास की क्यारियों के सिंचन हेतु जल के पूर से भरी हुई नाली के समान प्राप्त हुए शरीर के उत्पन्न करने में कारणभूत ऐसे जो द्रव्यकर्म और भावकर्म हैं उनके अभाव से ( मेरा आत्मा एक है। और वही सम्पूर्ण क्रियाकांड के आडम्बररूप विविध विकल्पों के कोलाहल से रहित सहजशुद्धज्ञानचेतना को अतीन्द्रियरूप में अनुभव करता हुआ शाश्वत अविनाशीरूप होकर मेरे लिये उपादेयरूप से विद्यमान है, जो कि तीनों कालों में उपाधिरहित