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निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार
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इह हि संसारावस्थायां मुक्तौ च निःसहायो जीव इत्युक्तः । नित्यमरणे तद्भवहरणे च सहायमन्तरेण व्यवहारतश्चक एवं मिते लादिरुनि तिथिजातीय विभावरम्यंजननरनारका दिपर्यायोत्पत्तौ चासन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयादेशेन स्वयमेवोजीवत्येव । सर्वैर्बंधुभिः परिरक्ष्यमाणस्यापि महाबलपराक्रमस्यैकस्य जीवस्याप्राथितमपि स्वायमेव जायते मरणम्, एक एव परमगुरुप्रसादासादितस्वात्माश्रयनिश्चय शुक्लध्यानबलेन स्वात्मानं ध्यात्वा नीरजाः सन् सद्यो निर्वाति ।
तथा चोक्तम्
( अनुष्टुभ् )
"स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्रिमुच्यते ।। "
उक्त च श्री सोमदेव पंडित देव:
टीका - संसार अवस्था में और मुक्ति में यह जीव असहाय है ऐसा वहां पर कहा है। जो प्रतिसमय आयु के निषेक उदय में आकर सड़ रहे हैं उसे नित्य मरण कहते हैं तथा उस भव की आयु के समाप्त होने को तद्भव मरण कहते हैं । इस नित्य मरण और तद्भव मरण में यह जीव व्यवहारनय से सहान के बिना अकेला ही मरता है, सादिसान्त मूर्तिक विजातीय विभाव व्यंजन पर्याय रूप नर नारकादि पर्यायों की उत्पत्ति के समय निकटवर्ती अनुपचारित असद्द्भुत व्हारय के कथन से स्वयं ही यह जीव जन्म लेता है। सभी बंधुवर्गों के द्वारा रक्षित किया जाने पर भी महावल और पराक्रम वाले इस जीव के नहीं चाहते हुए भी स्वयं ही मरण हो जाता है, और एक ही यह जीव परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त हुए ऐसे आत्मा के आश्रित निश्चय शुक्लध्यान के बल से अपनी आत्मा का ध्यान करके रज-ज्ञानावरण दर्शनावरण रूप कर्म रज से रहित होता हुआ शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त कर देता है। कहा भी है
श्लोकार्थ - आत्मा स्वयं ही कर्म को करता है, स्वयं ही उसके फल को (भोगता है, स्वयं ही संसार में भ्रमण करता है और स्वयं ही उस संसार से मुक्त भी हो जाता है।
ऐसे ही आचार्य श्री सोमदेव पंडिनदेव ने भी कहा है-