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२५.७ ]
नियमसार
( इन्द्रवज्रा )
निर्माणकाचार्यनिरुक्तियुक्तामुक्ति सदाकर्ण्य च यस्य चित्तम् ।
समस्तचारित्रनिकेतनं स्यात् तस्मै नमः संयमधारिणोऽस्मै ।। १२५ ।।
( वसंततिलका )
यस्य प्रतिक्रमणमेव सवा मुमुक्षोनस्त्यप्रतिक्रमणमध्यणुमात्रमुच्चः । तस्मै नमः सकलसंयम भूषणाय श्रीवोरनन्दिमुनिनामधराय नित्यम् ।। १२६ ।।
[ टीकाकार मुनिराज संयमी मुनि और श्री वीरनंदि मुनि को नमस्कार करते हुए दो श्लोकों द्वारा इस प्रतिक्रमण अधिकार को पूर्ण करते हुए कहते हैं |
(१२५) श्लोकार्थ - निर्यापक आचायों की निरुक्ति-व्याख्या सहित ( प्रतिक्रमण आदि संबंधी ) कथन को सदा सुनकर जिनका हृदय समस्त चारित्र का निवासगृह हो चुका है ऐसे उन संयमधारी मुनि को मेरा नमस्कार होवे ।
(१२६) श्लोकार्थ – जिन मुमुक्षु के सदा प्रतिक्रमण ही है और अणुमात्र भी अतिक्रमण नहीं है । अतिशय रूप से सकलसंयम ही है भूषण जिनका ऐसे उन श्री वीरनंदि नाम के मुनिराज को नित्य ही मेरा नमस्कार होवे ।
भावार्थ — यहां पर टीकाकार श्री मुनिराज ने संयम के स्थान स्वरूप ऐसे श्री* वीरनंदि मुनिराज को नमस्कार किया है । ये इनके शिक्षा गुरु आदि कोई गुरु अवश्य ही होंगे ऐसा प्रतीत होता है । इसप्रकार से यहां इस अधिकार में निश्चय प्रतिक्रमण के स्वरूप का वर्णन करते हुए अंतिम गाथा में श्री आचार्य देव ने व्यवहार प्रतिक्रमण को भी करने का आदेश स्पष्ट किया है ।