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निश्चय - प्रत्याख्यान अधिकार
( मंदाक्रांता ) प्रेक्षावद्भिः सहजपरमानन्दचिद्रूपमेकं संग्राह्य तैनिरुपममिदं मुक्तिसाम्राज्यमूलम् । तस्मादुच्चैस्त्वमपि च सखे मद्वचः सारमस्मिन् श्रुत्वा शीघ्र ं कुरु तव मतिं चिचमत्कारमात्रे ।। १३३ ।। ममत्त परिवज्जामि, सिम्ममत्तिमुट्ठदो । श्रालंबणं च मे श्रादा, श्रवसेसं च वोसरे ॥ ६६ ॥
ममत्वं परिवर्जयामि निर्ममत्वमुपस्थितः । आलम्बनं च मे आत्मा अवशेषं च विसृजामि ॥६॥
मैं ममत्व का त्याग करता है सब पर
सुस्थित होता है, निर्ममत्व में रुचि मेरा ग्रात्मा एक, मेथ श्रान्तम्वन तजता हूं सब शेष जो दुख के सावन हैं ||६||
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( १३३ ) श्लोकार्थ - बुद्धिमानजनों को मुक्ति साम्राज्य के मूलकारण, निरुपम, सह्जपरमानन्दमय चैतन्यस्वरूप यह एक आत्मा ही सम्यक्प्रकार ग्रहण करने योग्य है, इसलिये हे मित्र ! तुम भी सारभूत ऐसे मेरे वचनों को मुनकरके अतिशय मे चिच्चमत्कार मात्र इस आत्मा में शीघ्र ही अपनी बुद्धि लगायो ।
भावार्थ - यह आत्मा चिच्चमत्कार मात्र है इसके ध्यान करने से अलौकिक तीनों लोकों को और तीनों कालों को एक साथ जानने वाला परम चमत्कारिक दिव्यज्योतिरूप केवलज्ञान प्रगट हो जाता है ।
गाय ६६
अन्वयार्थ – [ ममत्व परिवर्जयामि ] में ममत्व को छोड़ता हूं, और [ निर्ममत्वं उपस्थितः ] निर्ममत्व में स्थित होता हूं, [ आत्मा च मे आलम्बनं ] आत्मा ही मेरा लम्बन है, [ अवशेषं च 'व्युत्सृजामि ] अवशेष सभी को मैं छोड़ता हूं ।
१. मुद्रित प्रतियों में विसृजामि है।