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निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार
[ २६७ - दुःखानां षण्णां सकलसंन्यासात्मकनिश्चयप्रत्याख्याने च मम भेदविज्ञानिनः परद्रव्य। पराङ मुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरबजितगात्रमात्रपरिग्रहस्य, मम सहजवैराग्यप्रासादशिखरE शिखामणेः स्वरूपगुप्तस्य पापाटवीपावकस्य शुभाशुभसंवरयोश्च, अशुभोपयोगपराङ - - मुखस्य शुभोपयोगेऽप्युदासीनपरस्य साक्षाच्छुद्धोपयोगाभिमुखस्य मम परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपमप्रभस्य शुद्धोपयोगेपि च स परमात्मा सनातनस्वभावत्वात्तिष्ठति ।
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भेद विज्ञानी, परद्रब्य में पराड मुख और पञ्चेन्द्रियों के व्यापार से रहित शरीर मात्र परिग्रहधारी ऐसे मेरं निम्रन्थ मनि के शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप और सुख-दुःख । इन छहों के सम्पूर्णतया त्याग रूप ऐसे निश्चय प्रत्याख्यान में वह आत्मा सदा आसन्न स्थित है-पास में विद्यमान है। सहज वैराग्यमी महल के शिखर ना शिलामणि स्वरूप अपने स्वरूप में गुप्त लीन हार, पापरूपी वन को जलाने के लिये पावक-अग्नि। सदृश ऐसे मेरे शुभ और अशुभ कर्म के सबर में वह परमात्मा ही है। अशुभयोग से पराङ मव हा, शुभोपयोग में भो उदासीन रूप और साक्षात् शुद्धोपयोग के अभिमग्ब होते हार नथा परमागमरूपी मकरन्द-पुपरस झर रहा है जिसके मुख से ऐमे मुझ पद्मप्रभ मनिराज के शुद्धोपयोग में भी वही परमात्मा मनातन स्वभाव वाला होने से विराजमान है।
विशेषार्थ-यहां पर टीकाकार ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए अपनी । निर्ग्रन्थ रूप महामुनि अवस्था का बे मालुम बहुत ही सुन्दर परिचय दे दिया है।
उन्होंने यह स्पष्ट कह दिया है कि मैं भेद विज्ञानी हूं, पंचेन्द्रियों के विषय व्यापार से रहित है, गात्र मात्र परिग्रह धारी-नग्न दिगम्बर मूनि हूं, तथा वैराग्यरूपी महल के शिखर का शिखामणि हं। आगे यहां तक कह दिया है कि अशुभोपयोग से सर्वथा रहित हैं, शुभोपयोग में भी उदासीन हं तथा शुद्धोपयोग के सन्मुख हैं क्योंकि दो-तीन घन्टे लगातार बैठकर ग्रंथ लिखने वाले उन मुनिराज को बीच-बीच में ही छठे से सातवां गुणस्थान होता था, परिवर्तन चलता ही रहता था, कारण छठे और सातवें गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं है । दो-तीन घन्टे तक वे छठे में रह नहीं सकते थे तथा चौथे पांचवें गुणस्थान में उनके जाने का सवाल ही नहीं है ऐसे अध्यात्म। योगी ग्रंथ रचना के समय कोई एक अपूर्व ही आत्मा का आनन्द ले रहे होंगे।