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नियमगार
( शार्दूलविक्रीडित) मत्स्वान्तं मयि लग्नमेतदनिशं चिन्मात्रचितामणावन्यद्रव्यकृताग्रहोद्भवमिमं मुफ्त्वाधुना विग्रहम् । तच्चित्रं न विशुद्धपूर्णसहजज्ञानात्मने शर्मणे देवानाममृताशनोद्भवचि ज्ञात्वा किमन्याशने ॥१३०।।
(शार्दूलविक्रीडित) निर्द्वन्तु निरुपद्रवं निरुपम नित्यं निजात्मोद्भवं तान्यद्रव्यविभावनोद्भवमिदं शर्मामतं निर्मलम् । पीत्वा यः सुकृतात्मकः सुकृतमप्येतद्विहायाधुना प्राप्नोति स्फुटमद्वितीयमतुलं चिन्माचिंतामणिम् ।।१३१॥
- -. .. .... - - - - - अर्थान शुद्ध निश्चयनय से आत्मा कालिक शुद्ध है पुनः स्वभाव को छोड़ने और परभाव को ग्रहण करने की कुछ बान ही नहीं उठती है। निश्चयनय के अवलम्बन से ऐसे निज के स्वभाव को समझकर उसी को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
(१३०) श्लोकार्थ—यह मेरा मन अन्य द्रव्य के आग्रह करने से या अन्य द्रव्य को आ-समंतात् सब तरफ से ग्रहण करने से उत्पन्न हुए इस शरीर को या विग्रह । गग-द्वेषादि कलह को छोड़कर इमसमय विशुद्धपूर्ण, सहज ज्ञानस्वरूप सुख के लिये .. चिन्मात्र चिन्तामणि स्वरूप ऐसे मुझ में हमेशा लीन हो गया है, इसमें कुछ भी आश्चर्य : नहीं है, क्योंकि अमृत भोजन में उत्पन्न स्वाद को जानकरके देवों को अन्य भोजन से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् नहीं है ।
___ भावार्थ-एक बार अमृत का आस्वाद आ जाने पर कौन ऐसा है कि जो अन्य खारा जल पीना चाहेगा? उसीप्रकार से एक बार जिनको अपने ही घट में विराजमान भगवान् आत्मा के अनुभव का आनन्द आ चुका है वह साधु च्या पर , संकल्प विकल्पों में या ऐसे निकृष्ट शरीर में आनन्द मानेगा? नहीं मानेगा, वह तो अपने स्वरूप में ही तन्मय होकर कर्मों का नाश करके रहेगा ।
(१३१) श्लोकार्थ-द्वन्द्व रहित, उपद्रव रहित, उपमा रहित, नित्य अपनी आत्मा मे उत्पन्न होने वाले, और अन्य द्रव्य को विभावना-विकल्प से उत्पन्न न होने