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निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार
मुक्त्वा सकल जल्पमनागतशुभाशुभनिवारणं कृत्वा । आत्मानं यो ध्यायति प्रत्याख्यानं भवेत्तस्य ॥६५॥
गेलाउंद
जो मुनि अंतर्बाह्य सकल जल्प को राजके । भावी शुभ वा अशुभ, भाव निवारण करके ॥
परम ध्यान में लीन, आत्मा की ध्याते हैं । निश्चय प्रत्याख्यान उनके मुनि गाते हैं ||६||
[ : ५.३
निश्चयनय प्रत्याख्यानस्वरूपाख्यानमेतत् । श्रत्र व्यवहारनयादेशात् मुनयो wear देनं देनं पुनर्योग्यकालपर्यन्तं प्रत्याविष्टान्नपानखाद्य लेह्यरुचयः, एतद् व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपम् । निश्चयनयतः प्रशस्ताप्रशस्त समस्तवचनरचना प्रपंच परिहारेण शुद्धज्ञानभावना सेवाप्रसादादभिनव शुभाशुभ द्रव्य भावकर्मणां संवरः प्रत्याख्यानम् । यः सवान्तर्मुखपरिणत्या परमकलाधारमत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति तस्य नित्यं प्रत्याख्यानं भवतीति ।
करके [आत्मानं ध्यायति ] अपनी आत्मा का ध्यान करता है. [ तस्य ] उस साधु के [ प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान [ भवेत् ] होता है ।
टीका - निश्चय के प्रत्याख्यान के स्वरूप का यह कथन है ।
यहां पर व्यवहारनय के कथन से मुनिगण प्रतिदिन भोजन करके पुनः योग्य कालपर्यन्त अन्नपान, खाद्य और लेह्य की विाले ऐसे चार प्रकार के आहार का त्याग कर देते हैं, यह व्यवहार प्रत्याख्यान का स्वरूप है । निश्चयनय से प्रशस्तअप्रशस्त रूप संपूर्ण वचन व्यापार के विस्तार को छोड़करके शुद्धज्ञान भावना की सेवा के प्रसाद से नवीन शुभ-अशुभरूप द्रव्यकर्म और भावकर्मो का संबर होना बह प्रत्याख्यान ( निश्चय प्रत्याख्यान ) है । जो सदा अन्तर्मुख परिणति से परमकला के आधारभूत ऐसे अतिशय अपूर्व आत्मा का ध्यान करता है उस साधु के नित्य ही प्रत्याख्यान होता है । ऐसे ही समयसार में कहा है ।