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नियममार
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तथा चोक्त समयसारे
"सन्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति गाणं ।
तम्हा पच्चक्खाणं गाणं णियमा मुरण्यव्यं ॥" तथा समयसारख्याख्यायां च
(प्रार्या) "प्रत्याच्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः । ।
आत्मनि चतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥" - ....
- - - --- "गाथार्थ'—जिस हेतु से सभी भावों को अपने में भिन्न सभी पदार्थों को 'ये पर हैं। इस प्रकार से जानकर त्याग करना है, उसी हेतु से 'पर है' ऐसा जानना ही प्रत्याभ्यान होता है ऐसा नियम से जानना चाहिये ।"
इसी प्रकार समयसार टीका में भी कहा है
"श्लोकार्थ-भविष्य के सपम्न कमी का प्रत्याख्यान करके जिसका मोहराग द्वेप नष्ट हो चका है ऐसा मैं निकम-सम्पूर्ण कर्मों से रहित चैतन्य स्वरूप अपनी आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा नित्य ही बनता हूं-रहता हूं।"
भावार्थ- आचार्य श्री ने निश्चयप्रत्याख्यान का वर्णन किया है। टीकाकार ने पहले व्यवहारप्रत्याख्यान का स्वरूप बतला दिया है। साधु आहार के अनन्तर तत्क्षण वहीं पर सिद्धभक्तिपूर्वक अगले दिन आहार ग्रहण करने तक चतुराहार का त्याग कर देते हैं पुनः गुरु के पास आकर गोचार प्रतिक्रमण करके सिद्धभक्ति और योगिभक्ति पूर्वक गुरु से प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं अर्थात् गुरु उन्हें अगले दिन आहार ग्रहण करने तक चतुराहार का त्याग दे देते हैं। यह मूलाचार के अनुसार प्रत्याख्या है। निश्चयप्रत्याख्यान उस अवस्था में होता है जब साधु के समस्त शुभ अशुभम अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प समाप्त हो जाते हैं, अन्तर्मुख परिणति ऐसी हो जाती है कि
१. गाथा ३४