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नियममार
केवलज्ञानस्वभावः केवलदर्शनस्वभावः सुखमयः । केवलशक्तिस्वभावः सोहमिति चितयेत् जानी ।।६६॥
वाबलशान स्वभाव, केवलदर्श स्वभाबी । केवल सौख्य स्वभाव, केवलशक्तिः स्वभावी ।। जो इन बारस्वरूप, सो ही मैं हूं इसदिध ।
चितन करते नित्य, सो ज्ञानी मुनि निश्चित ।।१६।। अनन्त चतुष्टयात्मकनिजात्मध्यानोपदेशोपन्यासोयम् । समस्तबाह्यप्रपंचवासनाविनिर्मुक्तस्य निरवशेषेणान्तर्मुखस्य परमतत्त्वज्ञानिनो जीवस्य शिक्षा प्रोक्ता । कथंकारम ? सानिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण, शुद्धस्पर्शरसगंधवर्णानामाधारभूतशुद्धपुद्गलपरमाणुवत्केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवलशक्तियुक्तपरमात्मा यः सोहमिति भावना कर्तव्या ज्ञानिनेति, निश्चयेन सहजज्ञानस्वरूपोहम, सहजदर्शनस्वरूपोहम्, सहजचारित्रस्वरूपोहम्, सहजचिच्छक्तिस्वरूपोहम्, इति भावना कर्तव्या चेति
- - - - - - स्वभावः ] केवल वीर्य म्यभाब बाला, [सः अहं] वह मैं ही हूं [इति ज्ञानी | इमप्रकार। से ज्ञानी साधुः [चितयेत् ] चितवन करे ।
टीका-अनन्त चतुष्टय स्वरूप अपनी आत्मा के ध्यान के उपदेश का यह कथन है।
समस्त बाह्य प्रपंच की वासना से रहित, संपूर्णतया अन्तर्मुख हुए परमतत्त्व ज्ञानी जीव को शिक्षा दी गई है। किसप्रकार से ? सादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले शुद्ध सद्भुत व्यवहारनय की अपेक्षा में शुद्ध स्पर्श, रस, गंध और वर्ण है। आधारभूत शुद्ध पुद्गल परमाणु के सदृश 'केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवल वीर्य से युक्त जो परमात्मा है, वह मैं ही हूं' ज्ञानी को इस प्रकार से भावना करनी चाहिये, यहां यह अर्थ है और निश्चयनय से मैं सहजज्ञान स्वरूप हूं, मैं सहज दर्शन स्वरूप हूं, मैं सहज चारित्रस्वरूप हूं, तथा मैं चतन्य शक्तिस्वरूप हूं, ऐसी भावना करना चाहिए, ऐसा समझना।
* अनाय ( पुराने संम्बरण में आद्य के स्थान पर 'गनाद्य' शब्द है)