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नियममार उत्तर---यहां निश्चयनय के प्रकरण में आचार्य कहते हैं कि ''प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा आदि ये आठ विषकुभ हैं इनसे विपरीत अप्रतिक्रमण आदि आठ अमृतकुभ हैं।"
टीका में जो अज्ञानी जनों में साधारण अप्रतिक्रमण आदि हैं वे शुद्धात्मा की सिद्धि के अभाव स्वभाव वाले होने से स्वयं ही अपराध रूप हैं अतः विषकुभ ही हैं उनके विचार करने का यहां क्या प्रयोजन है ? किन्तु द्रव्य प्रतिक्रमण आदि हैं वे मंपूर्ण दोषों को दूर करने वाले होने से अमृतकुभ होते हुए भी प्रतिक्रमण, अप्रतिक्रमण के विकल्प से परे ऐसे वीतराग निर्विकल्प ध्यानी मुनियों के लिये विषकूभ हैं न कि छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के लिए।......इसलिये ऐसा नहीं समझना कि ये आगम प्रतिक्रमण आदि को त्याग करने के लिये कह रहे हैं, किंतु ध्यानरूप कोई एक शुद्धात्म सिद्धि लक्षण दुष्कर अवस्था को प्राप्त कराना चाहते हैं ऐसा यहाँ अभिप्राय है। श्री जयसेनाचार्य कृत टीका में
___किये हा दोनों का निराकरण करना प्रतिक्रमण है, सम्यक्त्वादि गुणों में प्रेरणा प्रतिसरण है, मिथ्यान्न रागादि दोषां का निवारण परिहार है. पंचनमस्कारादिमंत्र, प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्यों के अवलम्बन से चित्त का स्थिर करना धारणा है। बाह्य विषय कषायों की इच्छा में रहते हुए चिन को मोड़ना निवृत्ति है, आत्मसाक्षी से दोष प्रगटता निंदा है. गुरु की साक्षी से दोष प्रगट करना गहीं है और दोषों के लगने पर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना शुद्धि है । ये आठ प्रकार का शुभोपयोग यद्यपि मिश्यात्व विषय कषायादि की परिणति रूप अशुभोपयोग की अपेक्षा से सविकल्प , रूप सराग चारित्र की अवस्था में अमृतकुभ है फिर भी ये रागद्वेषादि विभाव' परिणामों से शून्य निर्विकल्प शुद्धोपयोग लक्षण जो तृतीय भूमि है उसकी अपेक्षा से वीतराग चारित्र में स्थित महामुनियों के लिए विषकभ ही है ।" सारांश यह है कि यह व्यवहार प्रतिक्रमण निश्चयप्रतिक्रमण के लिए साधक है, सविकल्प अवस्था में | करना ही पड़ेगा और निर्विकल्प अवस्था में स्वयं छूट जावेगा ।
१. पडिकमणं पडिसरणं.............. ।। ३०६ ॥। समयसार
अपटिकमणं..........................।। ३०७ ।।। २. जयमेनाचार्य कृत टीका पृ. ३८६, ३६० ।