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परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
[ २४३ 'आचार्य कहते हैं कि यदि भरतादि क्षेत्र में कदाचित् उत्कृष्ट रूप से इतने निर्यापक यति संभव न हों तो क्रम से ४४ भी हो सकते हैं अथवा देश काल के अनुसार | उपयुक्त गुणों से युक्त ४० भी होते हैं ऐसे चार-चार कम करते हुए, अंतिम चार निर्यापक तो अवश्य होना चाहिए । कदाचित् चार मुनि इन निर्यापक गुणों से युक्त नहीं मिल सके तो दो तो अवश्य होना चाहिए । क्योंकि एक निर्यापक का विधान आगम में नहीं है, बल्कि एक निर्यापक से असमाधि आदि अनेक हानि होने की संभावना हो सकती है ।" इसप्रकार से मूलाराधना में वर्णन है, विशेष जिज्ञासुओं को वहां से देख लेना चाहिए।
इसप्रकार जो व्यवहार उनमार्थ प्रतिक्रमण में समर्थ मे पूर्ण निष्णात महामुनि हैं उन्हीं के निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण होना है। यहां पर टीकाकार ने तो निश्चयपरम शुक्लध्यान को ही निश्चय उनमार्थ प्रतिक्रमण कहा है जो कि आज पंचमकाल में है ही नहीं क्योंकि शुक्लध्यान उत्तम मंहनन बारी के श्रेणी में ही होता है ऐसा आगम का कथन है। ऐसे निविकल्प वर्मध्यान और शुक्लध्यानमय प्रतिक्रमण को टीकाकार ने अमृतकुम कहा है और उसमे अतिरिक्त व्यवहार उत्नमार्थ प्रतिक्रमण को विपकुभ कहा है। तथा उद्धरण में समयमार की गाथा दी है। इस समयसार गाथा की टीका में श्री अमृतचन्द्रसरि और श्री जयमेनाचार्य के अभिप्राय को भी देखिये---
___ "प्रश्न-'शुद्धात्मा की उपासना में बया लाभ है जबकि प्रतिक्रमण आदि से ही यह जीव निरपराधी हो जाता है क्योंकि व्यवहाराचार सूत्र में भी कहा है कि
अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिंदा, अगीं और अशुद्धि ऐसे आठ प्रकार के लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त न करना सो विषकुभ है और इनसे विपरीत प्रतिक्रमणादि हैं उनसे लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त करना बह अमृतकुभ है ऐसा व्यवहारनय वाले का तर्क है ।
१. प्रष्टचत्वारिंशत्संख्या । रिणज्जवगा निर्यापकायतयः । मूलाराधना पृ. ८४८ । २. अमृतचन्द्रसूरिकृत टीका का सार, पृ. ३८६, ३६० । ३. अपडिकमणं .......... .....२ गाथाय ।