________________
परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार
(अनुष्टुभ् )
शुक्लध्यानप्रबीपोऽयं यस्य चित्तालये बभौ 1 स योगी तस्य शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति स्वयम् ॥ १२४॥ | पडिकमरगणामधेये, सुत्त जह वष्णिदं पडिक्कमणं । तह णच्चा जो भावइ, तस्स तदा होथि पडिकमणं ॥ ६४ ॥
प्रतिक्रमणनामध्ये सूत्रे यथा वरिणतं प्रतिक्रमणम् । तथा ज्ञात्वा यो भावयति तस्य तदा भवति प्रतिक्रमणम् ॥ ६४ ॥
[ २४७
सर्वातिचार प्रतिक्रमण का लक्षण सर्वातिचारा दीक्षाग्रहणात्प्रभृति सन्यासग्रहणकाल यावत्कृता दोषाः " दीक्षाग्रहण काल से लेकर कपर्यंत जितने दोष हुए हैं वे सर्वातिचार हैं उनका शोधन भी अंतसमय में ही होता है यह प्रतिक्रमण उत्तमार्थ में ही सम्मिलित होता है । व्यवहार प्रतिक्रमण के बल से जब निश्चय प्रतिक्रमण रूप ध्यान का अवलम्बन ले लेता है तब साधु कर्मों का भी नाश करके केवलज्ञान रूप ज्योति को प्रगट कर लेता है ऐसा अभिप्राय है ।
189
[ अब टीकाकार श्री मुनिराज शुक्लध्यान के महत्व को बतलाते हुए श्लोक [ कहते हैं ]
( १२४) श्लोकार्थ – यह शुक्लध्यानरूपी प्रदीप जिसके मनरूपी गृह में सुशोभित हो रहा है वह योगी है उसके स्वयं शुद्ध आत्मा प्रत्यक्ष हो जाता है ।
भावार्थ- शुक्लध्यान के बल से ही आत्मा में शुद्ध परमात्मा प्रगट हो जाता है अन्यथा नहीं ऐसा अभिप्राय है ।
गाथा ६४
अन्वयार्थ - [ प्रतिक्रमणनामधेये सूत्रे ] प्रतिक्रमण नाम वाले सूत्र में [ यथा प्रतिक्रमणं वर्णितं ] जिसप्रकार से प्रतिक्रमण का वर्णन किया है [ तथा ज्ञात्वा ] उमी
१. अनगार धर्मामृत पृ. ५७६ ।