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नियमसार
जब ध्यानमग्न साधु होते, गुणरूप स्वयं परिणमते हैं । वे हो तो वीतराग होकर, संपूर्ण दोष को तजते हैं ।। इसलिये ध्यान ही वास्तव में सर्वातिचार प्रतिक्रमण कहा ।
यह निश्चय ध्यान शुक्ल संज्ञक जिन पाया उनने कर्म दहा ॥६३॥
अत्र ध्यानमेकमुपादेयमित्युक्तम् । कश्चित् परमजिनयोगीश्वरः साधुः अस्यासन्नभव्यजीवः अध्यात्मभासयोक्त स्वात्माश्रितनिश्चयधर्म्यध्याननिलीनः निर्भेदरूपेण स्थितः, अथवा कलक्रियाकांडाईबरव्यवहारनयात्मक भेदक रणध्यानध्येयविकल्पनिर्मुक्त निखिलकरणग्रामागोचरपरमतत्त्वशुद्धान्तस्तत्त्वविषय मेद कल्पनानिरपेक्ष निश्चयशुक्लध्यानस्वरूपे तिष्ठति च स च निरवशेषेणान्तर्मुखतया प्रशस्ता प्रशस्त समस्तमोहरागढ षाणां परित्यागं करोति तस्मात् स्वात्माश्रितनिश्चयधम्र्म्य शुक्लध्यानद्वितयमेव सर्वातिचा राण प्रतिक्रमणमिति ।
[तस्मात् तु ] इसलिये [ ध्यानं एव ] ध्यान ही [हि ] निश्चित रूप से [सर्वाति चारस्य ]] सर्वातिचार का [ प्रतिक्रमणं ] प्रतिक्रमण है ।
टीका - एक ध्यान ही उपादेय है ऐसा यहां पर कहा है ।
कोई परमजिन योगीश्वर माधु जो कि अतिनिकट भव्य जीव हैं वे अध्यात्मभाषा से कथित अपने आत्मा के आश्रित निश्चय धर्मध्यान में निश्चित रूप से लीन हुए अभेदरूप से स्थित होते हैं अथवा संपूर्ण क्रियाकांड के आडम्बर रूप व्यवहारनयात्मक और भेद के करने वाले जो ध्यान ध्येय के विकल्प हैं उनसे रहित सकल इन्द्रियों के समूह के अगोचर, परमतत्त्वरूप शुद्धचैतन्यतत्त्व विषयक भेद कल्पना से निरपेक्ष जो निश्चय शुक्लध्यान का स्वरूप है उसमें स्थित होते हैं, वे साधु निरवशेषरूप से अंतर्मु होने से प्रशस्त और अप्रशस्त रूप समस्त मोह, राग-द्वेष को परित्याग कर देते हैं। इसलिये अपने आत्मा के आश्रित निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान में दोनों ध्यान ही संपूर्ण अतिचारों के लिए प्रतिक्रमण हैं ऐसा अर्थ हुआ है ।
विशेषार्थ - यहां पर सर्वातिचार प्रतिक्रमण के विषय में निश्चय प्रतिक्रमण को कहते हुए उसे निश्चयधर्मध्यान और शुक्लध्यान की संज्ञा दी है । व्यवहा