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परमार्थ- प्रतिक्रमण अधिकार
"पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । जिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होइ विसकुम्भो ॥"
तथा चोक्त समयसारख्याख्यायाम्-
( वसन्ततिलका )
"वष्ट प्रतिकन एव दिये प्रमो तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् ।
गाथार्थ -- "प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्दा और शुद्धि ये आठ प्रकार के विषकुम्भ हैं ।"
उसी प्रकार से समयसार की व्याख्या में भी कहा है
श्लोकार्थ
जहां पर प्रतिक्रमण ही विपरूप कहा है, वहां अप्रतिक्रमण ही अमृत कैसे हो सकेगा ? तो फिर जन-साधु नीचे-नीचे गिरते हुए प्रमाद क्यों करते हैं ? क्यों नहीं प्रमाद रहित होकर ऊपर-ऊपर चढ़ते हैं ?
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विशेषार्थ - यहां गाथा में श्री कुंदकुंद देव ने निश्चयरूप उनमार्थ प्रतिक्रमण को शुद्धोपयोगी महामुनियों में घटित किया है। अतः व्यवहार उत्तमार्थ के लक्षण को आचार शास्त्रों से समझ लेना भी जरूरी है। ऐर्यापथिक आदि सात प्रकार के प्रतिक्रमणों में यह उत्तमार्य प्रतिक्रमण अंतिम कहलाता है । अनगार धर्मामृत में इसका लक्षण ऐसा है-
“’उत्तमार्थो निःशेषदोषालोचनपूर्वकाङ्गविसर्गसमर्धा यावज्जीवं चतुविधाहारपरित्यागः " निःशेष दोषों की आलोचनापूर्वक शरीर के त्याग में समर्थ ऐसा जो जीवनपर्यंत के लिये चार प्रकार के आहार का परित्याग करना वह उत्तमार्थं प्रतिक्रमण है । इस प्रतिक्रमण को करने वाले मुनियों की सल्लेखना के प्रसंग में यहां पर टीकाकार ने
१. समयसार गाथा ३०६ ।
३. अनगार धर्मामृत पृ. ५७८ ।
२. समयसार कलश, १८६ ।