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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार
उत्तमप्रट्ठे श्रावा तम्हि ठिदा हरणदि मुणिवरा कम्मं । तम्हा दु शाणमेव हि उत्तमप्रट्ठस्स पडिकमणं ॥६२॥
उत्तमार्थ आत्मा तस्मिन् स्थिता घ्नन्ति मुनिवराः कर्म । तस्मात्तु ध्यानमेव हि उत्तमार्थस्य प्रतिक्रमणम् ॥६२॥
उत्तमपदार्थ यह आत्मा ही जो उसमें स्थिर बसते हैं त्रे मुनिवर उत्तमार्थ प्रतिक्रम करके कर्मों को हनते हैं || इसलिये ध्यान ही वास्तव में, बस उत्तमार्थ प्रतिक्रमण कहा । जो निर्विकल्प ध्यानी साधू, उनते ही परमानंद नहीं ।।२।।
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रत्नत्रय के होने पर वह स्वयं ही छूट जाता है वहां पर बुद्धिपूर्वक छोड़ना या ग्रहण करना नहीं होता है । सोही समयमार में टीकाकार श्री जयसेनाचार्य ने कहा है
"निर्विकल्पसमाधिकाले
तस्य स्वयमेव प्रस्तावो नास्ति । नित्रिकल्प समाधि के समय व्रत और अव्रत का स्वयं ही प्रकरण नहीं रहता है । और भी कहा है कि "निविकल्पसमा निश्चये स्थित्वा व्यवहारस्त्याज्यः किंतु तस्यां त्रिगुप्तात्रस्थायां व्यवहारः स्वयमेव नास्तीति तात्पर्यार्थः ।
निर्विकल्प समाधिरूप निश्चयरत्नत्रय में स्थित होने पर व्यवहार त्याग करने योग्य है, किंतु उस तीन गुप्ति से महिन अवस्था में व्यवहार स्वयं ही नहीं है ऐसा महां तात्पर्य है ।
इसलिये जैसे मिध्यात्व अविरति आदि को छोड़ा जाता है, वैसे ही व्यवहार रत्नत्रय को छोड़ने का प्रसंग नहीं आता है किंतु उत्कृष्ट ध्यान में लीन होने पर स्वयं ही व्यवहाररत्नत्रय छूट जाता है। ऐसा समझना ।
गाथा ६२
अन्वयार्थ--[उत्तमार्थः] उत्तम अर्थ - पदार्थ [आत्मा] आत्मा है, [तस्मिन् स्थिताः मुनिवराः ] उस उत्तमार्थ में स्थित हुए मुनिवर [ कर्म घ्नंति ] कर्म का घात
१. गाथा १५४ टीका पृ. २१६ । २. गाथा २७६, २७७ की टीका में पृ. ३५७ ।