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नियमसार
अत्र निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम् । इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीनां सल्लेखनासमये हि द्विचत्वारिंशद्भिराचार्यदेत्तोसमार्थप्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागी धर्मो व्यवहारेण, निश्चयेन नवार्थेषूत्तमार्थो ह्यात्मा तस्मिन् सच्चिदानंदमयकारणसमयसारस्वरूपे तिष्ठन्ति ये तपोधनास्ते नित्यमरणभीरव:, अत एव कर्मविनाशं कुर्वन्ति । तस्मादध्यात्मभाषयोक्त मेदकरणध्यानध्येय विकरूपविरहितनिरवशेषेणान्तर्मुखाकारसकले - न्द्रियागोचरनिश्चय परमशुक्लध्यानमेव निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणमित्यवबोद्धव्यम् । कि च, निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमखं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्म्य शुक्लध्यानमयत्वाद मृतकुम्भस्वरूपं भवति, व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणं व्यवहारधर्मध्यानमयत्वाद्विषकुम्भस्यरूपं भवति । तथाचोक्तं समयसारे
कर देते हैं, [ तस्मात् तु ] इसलिए [ ध्यानं एवं ] ध्यान ही [हि ] निश्चितरूप से [उत्तमार्थस्य ] उत्तमार्थ का [ प्रतिक्रमणं ] प्रतिक्रमण है ।
टीका- यहां पर निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण के स्वरूप को कहा है। यहां पर श्री जिनेश्वर के मार्ग में मनियों की सल्लेखना के समय में निश्चितरूप से व्यास आचार्यो के द्वारा उनमार्थ प्रतिक्रमण इस नाम से दिया जाने से देहत्यागरूप धर्म व्यवहार में होता है । अर्थात् सल्लेखना के समय आचार्य मृनि को. उनमार्थं प्रतिक्रमण सुनाकर चत्विव आहार का त्याग कराते हैं यह व्यवहार उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है । और निश्चयनय से नव अर्थ- नव पदार्थों में उत्तम पदार्थ आत्मा ही है जो तपोवन सच्चिदानंदमय कारण समयसार रूप उस आत्मा में स्थित होते हैं वे नित्य ही मरण मे भीम हैं, इसीलिए वे कर्म का विनाश करते हैं । अतः अध्यात्मभाषा से कहे गये जो भेद को करने वाले ध्यान और ध्येय के विकल्प हैं उनसे रहित, निरक शेष रूप से अंतर्मुखाकार, संपूर्ण इंद्रियों से अगोचर निश्चय परम शुक्लध्यान ही निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है ऐसा समझना चाहिए ।
दूसरी बात यह है कि यह निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण अपने आत्मा आश्रयभूत निश्चय धर्मध्यान, शुक्लध्यानमय होने से अमृत कुंभस्वरूप होता है, व्यवहार उत्तमार्थ प्रतिक्रमण व्यवहार धर्मध्यानमय होने से विषकु भस्वरूप होता है । समयसार में कहा है