________________
ad...
-
२३४ ]
नियमसार आसनानासन्नभव्यजीवपूर्वापरपरिणामस्वरूपोपन्यासोऽयम् । मिथ्यात्वावतकषाययोगपरिणामास्सामान्य प्रत्ययाः, तेषां विकल्पास्त्रयोदश भवन्ति मिच्छाविट्ठीमागी | जाव सजोगिस्स चरमत' इति वचनात, मिथ्याष्टिगुणस्थानादिसयोगिगुणस्थानचरम• समयपर्यतस्थिता इत्यर्थः ।
अनासन्नभव्यजीवेन निरंजननिजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानविफलेन पूर्व सुचिर। भाविताः खलु सामान्यप्रत्ययाः, तेन स्वरूपविकलेन बहिरात्मजीवेनानासादितपरमनैष्कर्म्यचरित्रेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि न भावितानि भवन्तीति । अस्य मिथ्यादृष्टेविपरीतगुणनिचयसंपन्नोऽत्यासनमध्यजीवः । अस्य सम्यग्ज्ञानभावना कथमिति चेत्
टीका-आसन्न भन्य और अनासन्न भव्य जीव के पूर्वापर परिणामों के | म्वका का यह कथन है ।
मिथ्याव, अवन, कपाय और योग ये परिणाम मामान्यप्रत्यय-सामान्य कर्म | बंब के कण बाहलाते है. उनके तेरह भेद होते हैं, "मिथ्यादष्टि आदि से लेकर सयोग कवी पयंत होते हैं" मा परमागम का वचन है, अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से ] लेकर मयोग केवली गुणस्थान के चरमममय पर्यंत स्थित हैं, यह अर्थ हुआ।
निरंजन निज परमात्मनन्य के श्रद्धान से रहित हुयं दूरवर्ती भव्य जीव ने | पूर्व में चिन्काल तक निश्चित रूप में सामान्यप्रत्ययों की भावना को है । जिसने परम् । नकम-निश्चल चारित्र को प्राप्त नहीं किया है ऐसे स्वरूप के ज्ञान मे रहित उम। बहिरात्मा जीव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को भावित नहीं किया। है । और इस मिथ्यादृष्टि जीव से विपरीत गुण समूहों से संपन्न हुआ जीव अत्यासन्नअतिनिकट भव्यजीव है।
इस अतिनिकट नव्यजीव के सम्यग्ज्ञान की भावना किसप्रकार से होती है ? पमा प्रदान करने पर
१. सामण्यापच्च या ग्वन चउरो भण्णंति बंधकनारी । मिच्छत्तं अबिरमण कसायजोगा य बोद्धव्वा ।।१०९।। तेसि पुणो वि य इमा भणिदो भेदो दु तेरस विएप्पो। "मिच्छादिट्ठी यादी जाव सजोगिस्स चरमंतं" ॥११०।। (समयसार)
-
.-
-.-
: