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परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार तथा चोक्त श्रीगुणभद्रस्वामिभि:
( अनुष्टुभ् ) "भावयामि भवावर्तेभावनाः प्रागभाविताः ।
भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ॥" तथा हि
उसीप्रकार धी गुणभद्रस्वामी ने कहा है--
"श्लोकार्थ-भव के आवन में पहले नहीं भायी हुई रोमी गावना को मैं भाता है। और जिन की भावना की है उनको नहीं भाता हूं, क्योंविः इसप्रकार की भावनायें भव का अभाव करने वाली हैं' ।'
भावार्थ--पुनः पुनः जिनका चिन में चितवन किया जाता है उन्हें भावना कहते हैं पुर्व में जिनको नहीं भाया है ऐसी सम्यग्दर्शन आदि भावनायें हैं, और जिनको पहले से भाया है ऐसी मिथ्यादर्शन आदि भावनायें हैं । इस संसार भबर में फंसकर मैंने जिन सम्यग्दर्शन आदि भावनाओं का चिनवन नहीं किया है उनका अब चितवन करता हैं और जिन मिथ्यादर्शन आदि भावनाओं का बार बार चितवन कर चुका है उनको अब छोड़ता हूं : पूर्व भावित भावनाओं को छोड़कर अपूर्व भावनाओं को भाता हूं क्योंकि इस प्रकार की भावनायें संसार के नाश का कारण होती हैं ।
उसीप्रकार
[टीकाकार श्री मुनिराज अपूर्व अद्वैत एक ज्ञानभावना को भाने के लिये प्रेरित करते हुए श्लोक कहते हैं-]
१. आत्मानुशासन इलो० २३८ ।