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परमार्थ- प्रतिक्रमण अधिकार
( वसन्ततिलका )
ध्यानावलीमपि च शुद्धनयो न वक्ति व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे । सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्गस्वस्थं जिनेन्द्र तदही महदिन्द्रजालम् ।।११६ ।।
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गृहोपयोग में मुख्यरूप से शुक्लध्यान विवक्षित है। परमान्नप्रकाश में कहा । भी है — "दिव्य जोओ" द्वितीयशुक्लध्यानाभिधानो वीतराग निर्विकल्पसमा समाधिरूपो दिव्ययोगः कथंभूतः ? मोक्खदो मोक्षप्रदायकः द्वितीय शुक्लध्यान नामका वीतराग fafaeeraa दिव्यगोक्ष का प्रदायक है ।
[अब टीकाकार श्रीमुनिराज निश्चय व्यवहारनय में ध्यान को बनाने हुए दो लोक कहते है- ]
( ११६ ) श्लोकार्थ - व्यक्तम्प से सदाशिवमय अनादिनिधन शिवस्वरूप परमात्मतन्त्र के होने पर शुद्धनय ध्यान समूह को भी नहीं कहता है । 'वह ध्यानावली है - ध्यान समूह हैं इसप्रकार से हमेशा व्यवहार मार्ग कहता है । है 'जनेंद्र ! आपका यह तत्त्व, अहो ! महा इंद्रजाल स्वरूप है ।
भावार्थ — शुद्धनिश्चयनय से सभी संमारी जीवराणि सदा यही है किसी को कर्मलेप है ही नहीं, पुनः आत्मा के सदाशिवरूप सिद्ध हो जाने पर जब कर्म का सम्बन्ध ही नहीं है तब कर्मबन्ध के हेतु अथवा कर्मनाश के हेतुभूत ध्यान भी कैसे उदित होंगे ? इसलिए शुद्धनय ध्यान को उसके भेद प्रभेदों को मानता ही नहीं है । जो कुछ यह संसार- मोक्ष की या ध्यान आदि की व्यवस्था है उसको कहने वाला व्यवहारमार्गी, व्यवहारनय ही है । आचार्य कहते हैं कि हे भगवन् ! आपका यह तत्त्व महान इंद्रजालरूप आश्चर्यकारी है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि यह इंद्रजाल के समान मिथ्या है किंतु जैसे इंद्रजाल के खेल को समझना अत्यन्त कठिन है वैसे ही आपके इन नयचक्रों को समझना भी अत्यन्त गहन है । इसी बात को श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है