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परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार
( अनुष्टुभ् )
"निष्क्रिय करणातीतं ध्यानध्येयविवजितम् । अन्तर्मुखं तु यद्धधानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः ॥"
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" श्लोकार्थ - जो ध्यान क्रिया रहित होने में निष्क्रिय है- अचल है, इन्द्रियों जतीत परे है, ध्यान ध्येय के विकल्प से रहित है और अंतर्मुख है उस ध्यान की योगोजन शुक्लध्यान कहते हैं । "
विशेषार्थ - इस संहनन वालों के एकाग्रता निरोध को ध्यान कहते हैं. यह उत्कृष्टता अंतर्मुहर्त तक हो सकता है। अर्थात् गमन, भोजन, शयन, अध्ययन आदि विविध क्रियाओं में भटवाने वाली चिनवृत्ति का एक क्रिया में रोक देना निरोध कहलाता है | द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु या आत्मा आदि किसी अन्य अर्थ में चित्तवृत्ति को केंद्रित करना ध्यान है ।
इस ध्यान के चार छेद हैं- आनं रौद्र, धर्म और शुक्ल ।
ऋत-दुःख-पीड़ा में उत्पन्न हुआ ध्यान आर्तध्यान है, उसके भी बारविष, कंटक, शत्रु आदि अप्रिय वस्तुओं के मिल जाने पर ये मुझसे कैसे दूर हो इस प्रकार की सब चिन्ता आर्तध्यान है अर्थात् स्मृति को दूसरे पदार्थ की और न जाने देकर बार-बार उसीमें लगाये रखना, ऐसा यह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है ।
इष्ट वस्तु के वियोग होने पर पुनः उसकी प्राप्ति के लिये चिंता करना इष्ट वियोग ध्यान है ।
शरीर में रोग से वेदना होने पर आकुल होकर बार बार चिंतन करना वेदनाजन्य आर्तध्यान है ।
प्रीतिविशेष आदि से आगामी भव में कायक्लेश के बदले विषय मुखों की चाह करना निदान आर्तव्यान है ।
१. तत्वार्थ वा. प्र. ६, सू. २७ से