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परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार
[ २२३ बत्ता अगुत्तिभावं' तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू । सो पडिकमरणं उच्चइ, पडिकमरणमनो हवे जम्हा ॥५॥ त्यक्त्वा ह्यगृप्तिभावं त्रिगुप्तिगुप्तो भवेद्यः साधुः । स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात ।।८।। मन वचन काय की क्रियारूप, जो भाव अगुप्नी को त जकर | तीनों गुप्ती से गुप्त हुए, संपूर्ण विकल्पों को तबर।। वे ही प्रतिमा कहाते हैं, क्योंकि प्रतिक माम् है ।
शृद्धोपयोग में रत माघ स्वयमेव साध्या हो वे ।।८।। त्रिगुप्तिगुप्तलक्षणपरमतपोधनस्य निश्चयचारित्राख्यानमेतत् । यः परमतपइसरःसरसिरहाकरचंडचंडरश्मिरस्यासन्नभव्यो मुनीश्वरः बाहाप्रपंचरूपम् अगुप्ति
गाथा ८८
अन्वयार्थ- [यः साधुः] जो माधु [ हि अगुप्तिभावं त्यक्त्वा । निश्चिताए अगुप्तिभाब का त्याग करके [ त्रिगुप्तिगुप्तः भवेत् ] नीन गुन्नियों मे गुप्त-सहितअरक्षित होते हैं, [सः प्रतिक्रमणं उच्यते] व-साधु प्रतिक्रमण कहलाते हैं. [ यस्मात ] बोंकि [प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] वे प्रतिक्रमणमय हो जाते हैं ।
टीका-तीन गुप्नियों से गुप्न लक्षण वाले परमनपोधन के निश्चयचारित्र का यह कथन है । ह जो परम नपश्चरण वो ही हुआ सरोवर जो कि कमलों का आकार-ग्वान स्वरूप है उसके लिये प्रचंड किरण वाले सूर्य के समान, ऐसे अन्यासन्न भव्य-अतिनिकट भव्य मुनीश्वर बाह्यप्रपंचरूप अगुप्तिभाव-गुन्तिरहित अवस्था को छोड़कर त्रिगुप्ति से गुप्त निर्विकल्प परमसमाधि लक्षण से महित अनिअपूर्व-जिसका पूर्व में कभी नहीं प्राप्त किया है ऐसी आत्मा का ध्यान करते हैं, वे जिस हेतु में प्रतिक्रमणमयी परमसंयमी हैं उसी हेतु से ही वे निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप होते हैं ।
१. हि गुत्ति भावं (क) पाठान्तर ।