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नियासार
भावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिगुप्तनिविकल्पपरमसमाधिलक्षणलक्षितम् अत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति, यस्मात् प्रतिक्रमणमयः परमसंयमी अत एव स च निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवतीति ।
भावार्थ- यहां पर उत्कृष्ट तपश्चरण को सरोवर के कमलों की उपमा दी है और अति निकट भव्य मुनिराज को मूर्य बनाया है । जैसे सूर्य की प्रचंड किरणें कमलों को प्रफुल्लिन कर देती हैं वैसे ही वे मुनिराज तपश्चरण को विकमित करते हैं अथवा उन-उग्र तपश्चरणरूपी किरणों से अपनी आत्मारूपी कमलों को बिना देते हैं । वे मनिराज तीन गुप्तियों से अपने आपको पूर्ण सुरक्षित करके निर्विकल्प ध्यान में लीन हो जाते हैं, तभी अपूर्व-अपूर्व परिणामों से अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त होते हुए अपूर्व आत्मा के स्वरूप का अनुभव करते हैं वे ही तपोधन वीतरागचारित्र के साथ अविनाभावी से निश्चयरत्नत्रय से परिणत हुए निश्चयप्रतिक्रमण स्वम्प हो जाते हैं ।
वहा भी है-''जो' कर्म अज्ञानी जीव लक्षकोटि भवों मे ग्बपाना है वह कर्म तीन गुप्तियों से गुग्न हुआ क्षपकश्रेणी वाला ज्ञानी उच्छ्वास मात्र में क्षपित कर देता है।" यहां पर त्रिगुप्ति से सहित साधु को ही ज्ञानी कहा है. यह त्रिगुप्तावस्था वीतराग निविकल्प ध्यान में ही संभव है ।।
कोटिजन्म तपनपं ज्ञान विन कर्म झरे जे ।
ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुनि त सहज टर ते ।। यहां पर जो त्रिगुप्ति त' शब्द है वह भी ऐसे ध्यानपरिणत माधु को ही मूचित करता है। जब जो मुनि त्रिगुप्ति से परिणत नहीं हैं उन साधारण-छठे गुणस्थानवर्ती मुनि को भी यहां पर 'ज्ञानी' शब्द से नहीं लिया है फिर असंयत और देशसंग्रत श्रावकों की बात तो बहुत ही दूर है।
गुप्ति के उदाहरण के लिये देखिये
राजा श्रेणिक ने जैन मुनियों की परीक्षा के लिये गुलरीति से राजमन्दिर में एक गड्ढे में हुड्डी, चर्म आदि भरवा दिये और रानी से कहा कि आप इस पवित्र
१. जं अपणाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सास
मत्तेण ।।२३८॥ [ प्रवचनसार ] २. अंशिकचरित, श्री शुभचन्द्र वि०, मर्ग ६, १० से ।
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