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आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यतिः सर्वतश्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ॥ "
तथा हि-
नियमसार
( मालिनी ) विषयसुखविरक्ताः शुद्धतवानुरक्ताः तपसि निरतचित्ताः शास्त्रसंघातमत्ताः । गुणमणिगणयुक्ताः सर्वसंकल्पभुक्ताः कथममृतवधूटीवल्लभा न स्युरेते ।। ११५ ।।
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प्रवचनसार ग्रन्थ में २०० गाथाओं ६६१ गाथाओं तक चरणानुयोग
भावार्थ - भगवान् श्री देव ने तक ज्ञान आर ज्ञेय तत्त्व का वर्णन करके २०१ चुलिका नाम से मुनियों के चारित्र का वर्णन किया है। उसमें शुद्धोपयोग और शुभो - पयोग अथवा वीतराग चारित्र सराग चारित्र या उपेक्षासंयम अपहृतसंयम अथवा उत्सर्ग चारित्र और अपवाद चारित्र इन दो प्रकार के नाम वाले चारित्र का वर्णन किया है। तथा निश्चय और व्यवहार चारित्र में परस्पर में मंत्री को बतलाते हुए इनको सापेक्षरूप से धारण करने का स्पष्ट आदेश दिया है उसी उभय चारित्र के प्रकरण के उपसंहार में उस श्लोक के द्वारा साधुओं को प्रेरित करते हुए कहा है कि आप लोग प्रारम्भ में उभयचारित्र में बार बार विचरण करते हुए आगे केवल निवृत्तिरूप निश्चयचारित्रमय निज आत्मा में तन्मय हो जावो ।
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उसी प्रकार मे - [ अब टीकाकार मुनिराज निश्चय प्रतिक्रमण के उत्तम फल की ओर लक्ष्य दिलाते हुए लोक कहते हैं- 1
( ११५ ) श्लोकार्थ - जो विषय सुखों से विरक्त हैं, जो शुद्ध तत्त्व में अनुरक्त हैं. तपश्चरण में जिनका मन लीन है, जो शास्त्रों के समूह में मत्त आनन्दित' हैं, गुण मणियों के समूह से युक्त हैं, और सर्व संकल्पों से मुक्त हैं ऐसे परमतपोधन अमृतबधूटीमुक्तिबधू के बल्लभ- प्रियतम क्यों नहीं होंगे ? अर्थात् मुक्ति स्त्री के पति अवश्य होंगे ।
१. मदी - मद धातु हृर्ष में भी है।