________________
परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार
| २१९ म्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मक मार्गाभासमुन्मार्ग परित्यज्य व्यवहारेण महादेवाधिसरसर्वशवीतरागमार्गे पंचमहावतपंचसमितित्रिगुप्तिपंचेन्द्रियनिरोधषडावश्यकातिमूलगुणात्मके स्थिरपरिणामं करोति, शुद्धनिश्चयनयेन सहजबोधादिशुद्ध
सहजपरमचित्सामान्यविशेषभासिनि निजपरमात्मद्रव्ये स्थिरभावशुद्धचारित्रति, स मुनिनिश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मानिश्चयप्रतिक्रमणं परमतत एव स तपोधन: सका शुद्ध इति । । तथा चोक्त प्रवचनसारव्याख्यायाम
(मादू नविना डिन ; "इत्येवं चरणं पुराणपुरुषंजुष्टं विशिष्टादरे
रुत्सर्गादपाः दलबल विर बह्वीः पृय भूमिकाः । -- -... . ..-. . . आदि प्रणीन मिथ्यादर्शन मिथ्याजान और गिश्याचारित्रात्मक मार्गाभामम्प का परित्याग करके व्यवहारनय की अपेक्षा से पांच महावत, पांच समिति, प्राप्ति, पांच इन्द्रिगों का निरोध और पटायरक क्रिया आदि अट्ठाईस मलगुणमहादेवाधिदेव, परमेश्वर, सर्वज, बोल गग के मार्ग में स्थिरभाव करता है, और चयनय की अपेक्षा मे सहज ज्ञान-दर्शन आदि शुद्ध गुणों से अलंकृत, सहजपरम के सामान्य-विशेष प्रतिभासरूप में निज परमाभ द्रब्य में शुद्धचारित्रमय पाव को करता है, वह मुनि निश्चय प्रतिक्रमणम्वरूप है ऐसा कहा जाता है । वह परमतत्त्व को प्राप्त हुआ निश्चय प्रनिक्रम ग है और इस निश्चय प्रतिक्रमण वह तपोधन मदा शुद्ध है। । उसी प्रकार प्रवचनसार की व्याख्या में भी कहा है
"इसप्रकार से विशेष आदर बाल पुराण पुरुषों द्वाग सेवित, उन्मर्ग और बाद द्वारा अनेक पृथक्-पृथक् भूमिकाओं में विचरण करने वाले यति चारित्र को करके क्रमशः अतूल निवृत्ति करके सामान्य-विशेषरूप चैतन्य जिसका प्रकाश है निज द्रव्य में सत्र प्रकार से स्थिति करो' ।'
१. अमृतनन्द्राचार्य कृत तत्त्वदीपिका नामक टीका, गाथा २३१ की टीका में श्लोक १५ ।
7:..
.