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नियमसार
उम्मग्गं परिचत्ता, जिरणमग्गे जो दु कुणदि थिरभाव । सो पडिफमणं उच्चइ, पडिकमणमो हवे जम्हा ॥८६॥
उन्मार्ग परित्यज्य जिनमार्ग यस्तु करोति स्थिरभावम् । म प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ।।६।।
रत्नत्रय में विपरीत गर्व, मारग को जो तज करके । जिममारग में ही प्रहरी, स्थिर परिगामों को करते ।। वे ही प्रतिक्रमगा कहे जाने, क्योंकि प्रतित्रामगा स्वरूप हुए ।
ब निश्चयप्रतिकारगण धारी. निज में परिणत निजम्प हुए ।।६।।
अत्र उन्मार्गपरित्यागः सर्वज्ञवीतरागमार्गस्वीकारश्चोक्तः । यस्तु शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवमलकलंकपंकनिर्मुक्तः शुद्धनिश्चयसदृष्टिः बुद्धावि
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भावार्थ-जो संसार की परंपरा के कारणभूत अनाचार है उनको छोड़कर जो साधु अनंत चतुष्टय स्वरूप अपनी शुद आत्मा में स्थिर हो जाते हैं, निविकल्प समाधि के द्वारा अपनी आत्मा में ही लीन हो जाते हैं। उस समय उनके बाह्य आवश्यक आदि सारी क्रियाय भी हट जानी हैं पुनः अन्य अनर्गल क्रियाओं की बात तो बहुत ही दूर है, तब कषायों के पूर्ण उपशम तथा क्षयरूपी जल से आत्मा के कर्ममल धुल जाते हैं और आत्मा पूर्णतया पवित्र होकर नीक को प्रत्यक्ष देखने-जानने वाला हो जाता है।
যাথা ও अन्वयार्थ-[यः तु] जो साधु [उन्मार्ग परित्यज्य] उन्मार्ग को छोड़ करके [ जिनमार्ग स्थिरभावं करोति ] जिनेंद्र भगवान के मार्ग में स्थिरभाव करता है, [ सः प्रतिक्रमणं उच्यते ] वह साधु प्रतिक्रमण कहलाता है [ यस्मात् प्रतिक्रमणमयो भवेत् ] क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय होता है।
टीका-यहां पर उन्मार्ग के परित्याग और सर्वज्ञ वीतराग देव के मार्ग के स्वीकार करने को कहा है।
जो शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा और अन्य दृष्टि संस्तव इन पांच अतिचार कप मलकलंक पंक से रहित शृद्ध निश्चय सम्यग्दृष्टि साधु बुद्ध,