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मार्गदर्शक
परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार
( मालिनी ) अथ निजपरमानन्दैक पीयूषसान्द्रं स्फुरितसहजबोधात्मानमात्मानमात्मा । निजशममयवाभिनिर्भरानंद भक्त्या स्नपयतु बहुभिः किं लौकिकालापाः ।। ११३।।
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( स्रुधरा )
मुक्त्वानाचारमुच्चैर्जन नमृतिकरं सर्वदोषप्रसंग स्थित्वात्मन्यात्मनात्मा निरुपम सहजानंदज्ञप्तिशक्ती । बाह्याचारप्रमुक्तः शमजलनिधिवाबिन्दुसंदोहपूतः सोयं पुण्यः पुराणः क्षपितमलकलिर्भात लोकोधसाक्षी ।। ११४ ॥
( ११३ ) श्लोकार्थ - - आत्मा निजपरमानंदम्ग एक अद्वितीय अमृत से सान्द्रआर्द्र- भीगे हुए वा पूर्ण भरित और सकुरायमान सहजबोधस्वरूप आत्मा को अपने परिणामों के उपपमरूप जल से अतिशय आनंद और भक्तिपूर्वक स्नान कराओ, से लौकिक वचन समूहों से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है ।
बहुत
भावार्थ - - परिणामों में जो कायों की मंदना या उपगमता है वही एक प्रकार का निर्मल जल है, उस जल से अपनी आत्मा को स्नान कराने से वह पवित्र हो जाती है, इसलिए साधुओं को प्रेरणा देते हुए आचार्य कहते हैं कि बहुत वाह्य वचनों के आडम्बर से लोगों को प्रसन्न करने से कुछ भी निज कार्य सिद्ध नहीं होगा ।
स
( ११४) श्लोकार्थ -- जो आत्मा जन्म-मरण के करने वाले, सर्व दोषों के प्रसंगरूप ऐसे अनाचार को अत्यन्त रूप से छोड़कर, उपमारहित सहज आनन्द-मुख, सहज दर्शन, सहज ज्ञान और सहज वीर्यस्वरूप अपनी आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा स्थित होकर, बाह्य आचार से रहित होता हुआ, अमसमुद्र के जलबिंदुओं के समूह से पवित्र हो जाता है, सो वह - पुण्यरूप, पुराण महापुरुष आत्मा, नष्ट कर दिया है मलरूपी क्लेश को जिसने ऐसा, और लोक को उत्कृष्टरूप से साक्षात् करने वाला होता हुमा शोभायमान होता है ।