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तथा हि
परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेबी || "
( मालिनी ) अपगतपरमात्मध्यानसंभावनात्मा नियतमिह भवार्तः सापराधः स्मृतः सः । अनवरत भखंडाद्वं तचिद्भावयुक्तो भवति निरपराधः कर्मसंन्यासदक्षः ।। ११२ ॥
मोसूण प्रणायारं, प्रायारे जो दु कुरणदि थिरभावं । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमरणमश्री हवे जम्हा ॥८५॥
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करता है। यह जीव नियम से अपने को अशुद्ध भजता हुआ अर्थात् अपने को अशुद्ध अनुभव करता हुआ सापराध- अपरावसहित है, और सम्यक्प्रकार से शुद्ध आत्मा का :: सेवन करने वाला - अनुभव करने वाला निरपराधी है' ।"
उसीप्रकार से [ टीकाकार मुनिराज भी अपराध-निरपराध का स्वरूप स्पष्ट करते हुए श्लोक कहते हैं—
(११२) श्लोकार्थ - जो जीव परमात्मा के ध्यान की सम्यक्भावना में रहित हैं, यहां पर नियम से वे भव से पीड़ित हुए सापराधी माने गये हैं। जो जीव सदा ही अखंड, अद्वैत चैतन्यभाव से युक्त हैं वे कर्म के त्याग में कुशल होने से निरपराधी होते हैं ।
गाया ८५
अन्वयार्थ – [ यः तु श्रनाचारं मुक्त्वा ] जो साधु अनाचार को छोड़कर [ आधारे स्थिरभावं करोति ] आचार में स्थिरभाव को करता है, [ सः ] वह - साधु
१. समयसार कलश, १८७ ।
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