________________
1
i
I
I
२१४ ]
नियमसार
निरवशेषेण विराधमं मुक्त्वा । विगतो राधो यस्य परिणामस्य स विराधनः । यस्मा निश्चयप्रतिक्रमणमयः स जीवस्तत एव प्रतिक्रमणस्वरूपमुच्यते ।
तथा चोक्त समयसारे
"संसिद्धिरासिद्धं साधियमाराधियं च एवट्ठ अवगयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ॥"
उक्त हि समयसारख्याख्यायां च-
(लिनी )
"अनवरत मनतैर्बध्यते
सापराधः
स्पृशति निरपराधी बंधनं नैव जातु ।
गई है, 'राथ' आराधना जिरा परिणाम में वह परिणाम विराधना कहलाता है । जिस हेतु से ( विराधना रहित होने से ) वह जीव निश्चय प्रतिक्रमणमय है उसी हेतु से यह प्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है ।
भावार्थ-यहां आचार्यदेव ने व्रतों में विराधना से रहित और विध आराधना से सहित साधु को ही प्रतिक्रमणमय स्वभाव कह दिया है क्योंकि वह साधु हो प्रतिक्रमणरूप से परिगत होने से प्रतिक्रमणमय हो रहा है ।
भगवान श्री कुरंदकुद ने समयसार में भी उसीप्रकार कहा है
गाथार्थ - "संसिद्धि, राध, सिद्ध, साबित और आराधित ये सब एकार्थवाची शब्द हैं, निश्चित ही जो आत्मा राध-आराधना संसिद्धि आदि से अपगत-रहित है वह आत्मा अपराध- अपराधी है ।"
श्री अमृतचन्द्रसूरि ने समयमार की व्याख्या अत्मख्याति नाम टीका में भी
कहा है
श्लोकार्थ - - " अपराध सहित आत्मा निरंतर ही अनंत पुद्गल परमाणुरूप कर्मों से बँधता है, और अपराधरहित आत्मा कदाचित् भी बंधन को स्पर्श नहीं
१. गाथा ३०४ |