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परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
[ २०६ मोत्तूणवयणरयणं, रामदो भाववारणं किच्चा। अप्पारणं जो झायवि, तस्स दु होदि त्ति पडिकमरणं ॥३॥
मुक्त्वा वचनरचनां रागादिभाववारणं कृत्वा । प्रात्मानं यो ध्यायति तस्य तु भवतीति प्रतिकमणम् ।।३।। जो प्रतिक्रमण का पाठ वचन रचनामय उसको सज करके । रागादि भाव को छोड़ सर्वविध निर्विकल्प मन बन कर ।। निज आत्मा को नित ध्यारी है अतिशय एकाग्रचिन करके ।
यह प्रतिक्रमण निश्चयसंज्ञक उनके होता है निश्चय से ।।८३।। दैनं दैनं मुमुक्षुजनसंस्तूयमानवाङमयप्रतिक्रमणनामधेयसमस्तपापक्षयहेतुभूत. सूत्रसमुदयनिरासोयम् । यो हि परमतपश्चरणकारणसहजवैराग्यसुधासिन्धुनाथस्य
विद्यमान है फिर भी उपयोग में मोह के न रहने में वह भेदज्ञान कपायों की उपशमनारूप सागर के जल प्रवाह से पायरूपी पंक को धोकर स्वच्छ हो जाता है । यह भेद विज्ञानरूप परिणाम-समयसार का ही कोई एक अद्भुत प्रकार है । मा समझना ।
गाया ८३ ___ अन्वयार्थ-[ वचनरचनां मुक्त्वा ] वचनरचनाम्प प्रतिक्रमण को छोड़कर, [ रागादिभावधारणं कृत्वा ] रागादि भावों का निवारण कर के [ यः ] जो साधु [आत्मानं ध्यायति ] आत्मा को ध्याता है [तस्य तु] उसके [प्रतिक्रमरणं भवति इति] प्रतिक्रमण होता है।
टीका-प्रतिदिन मुमुक्षु जनों के द्वारा उच्चारण किये जाने वाला जो वचन। मय प्रतिक्रमण इस नाम वाला है जो संपूर्ण पापों के क्षय करने में कारणभूत सूत्रों का १. समुदाय है, उसका यह निरास है अर्थात् उस वचनरचनारूप प्रतिक्रमण का यहां पर । निराकरण किया गया है।
जो परमतपश्चरण के कारणभूत सहज वैराग्यरूपी अमृत समुद्र के लिए पूर्णिमासी के पूर्ण चन्द्रमा हैं और जो अप्रशस्त वचनों की रचना से पर्वत: भक्त होते
१. रागादि (क) पाठान्तर