________________
[ २११
परमार्थ- प्रतिक्रमण अधिकार
निजकारण परमात्मानं ध्यायति, तस्य खलु परमतत्वश्रद्धानावबोधानुष्ठानाभिमुखस्य सकल वाग्विषयव्यापारविरहितनिश्चयप्रतिक्रमणं भवतीति ।
से होती है 1 और यदि प्रतिक्रमण न करें तो उस आवश्यक क्रिया की विराधना से ये दोषों की शुद्धि के लिये गुरुदेव से प्रायश्चित्त लेना होता है ।
जो साधु शुद्धोपयोग में तो पहुंच नहीं हैं और इस द्रव्य भावरूप प्रतिक्रमण को भी छोड़ देते हैं वे तो महान् दोषी होते हैं । इसी बात को श्री अमृतचन्द्रसूरि कहा है— यत्र' प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधाकुतः स्यात् । तत्कि प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नोऽधः, किं नोर्ध्वमुर्ध्वमधिरोहति निःप्रमादः || १८९ ।।
अर्थ - हे भाई! जहां प्रतिक्रमण को ही पि कहा है वहां अप्रतिक्रमण अमृत कैसे हो सकता है ? इसलिये यह जीव नीचे-नीचे गिरता हुआ प्रमादी क्यों होता है? निष्प्रसादी होकर ऊपर-ऊपर क्यों नहीं चढ़ना है अर्थात् जहां प्रतिक्रमण को ही कुंभ कह दिया है ऐसे शुद्धोपयोग में स्थिर होतेम्प अवस्था में ही द्रव्यप्रतिक्रमण छूटकर निश्चयप्रतिक्रमणम्य अवस्था हो जाती है उसके पूर्व छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों को यह दंडक सूत्रों के उच्चारणरूप प्रतिक्रमण करना ही चाहिए ।
श्रावक के तो व्यवहार प्रतिक्रमण भी नहीं है अतः निश्चय प्रतिक्रमण की बात तो बहुत ही दूर है। श्रावक की पट् आवश्यक क्रियायें निम्नलिखित हैं-देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान । इनमें भी 'दाणं पूजा मुक्वो सावयधम्मो ण सावया तेण विणा श्रावक धर्म में दान और पूजा मुख्य है इन दो क्रियाओं के बिना श्रावक धर्म नहीं हो सकता है ऐसा श्री कुंदकुंद भगवान का उपदेश है ।
१. समयसार कलश १८६ पृ. ३६२ ।
२. आज जो क्रियाकलाप श्रादि में मुद्रित हो चुके हैं ऐसे वे देवसिक 'रात्रिक' पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण सूत्र श्री गौतमस्वामी रचित हैं ऐसा टीकाकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने कहा है ।
३. रयणसार श्री कुदेकु ददेवकृत ।