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नियमसार
तथा चोक्तं श्रीमद्दमृतचन्द्रसूरिभिः
तथा हि
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( अनुष्टुभ् )
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । अस्वाभावतो बचा बढ़ा ये किल केचन ॥१३१॥
( मालिनी ! इति सति मुनिनाथस्योच्चकै भेदभावे स्वयमयमुपयोगाद्राजते मुक्तमोहः । शमजलनिधिपूरक्षालितांहः कलंक: स खलु समयसारस्यास्य मेदः क एषः ||११० ॥
इस भेदविज्ञान के विषय में श्रीमान् अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा हैश्लोकार्थ — 'निश्चित रूप से जो कोई भी सिद्ध हुए हैं वे सब भेदविज्ञान से
ही मित्र हुये हैं, और निश्चितरूप से जो कोई भी बंधे हुये हैं वे सभी जीव भेदविज्ञान के अभाव में ही बंधे हुए हैं ।'
उसीप्रकार - [ टीकाकार श्री मुनिराज भेदविज्ञान की महिमा के विषय में आस्चर्य प्रगट करते हुए श्लोक कहते हैं--]
( १९१०) श्लोकार्थ - इसप्रकार से मुनिनाथ को उत्कृष्टरूप से भेदविज्ञान के हो जाने पर स्वयं यह ( भेदविज्ञान ) उपयोग से मोहरहित होता हुआ शोभायमान होता है, शमसमुद्र के प्रवाह से धो डाला है पापरूपी कलंक को जिसने, ऐसा जो भेद है वह निश्चित ही इस समयसार का कोई एक भेद है । अर्थात् वह भेदविज्ञान समयसार का कोई एक अद्भुत चमत्कारी भेद है ।
भावार्थ — जिससमय महामुनि भेदविज्ञान के द्वारा आत्मा और शरीर की भिन्नता का अनुभव करते हैं उमसमय उनके उपयोग में मोहभाव नहीं रहता है, यद्यपि मोहनीय कर्म का बंध और उदय दशवें गुणस्थान तक तथा सत्व ग्यारहवें गुणस्थान तक
१. समयसार कलश १३१ ।