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नियमसार
( बसंततिलका) भव्यः समस्तविषयाग्रहमुक्तचिन्तः स्वद्रव्यपर्ययगुणात्मनि दत्तचित्तः । मुफ्त्या विभावमखिलं निजभावभिन्न
प्राप्नोति मुक्तिचिरादिति पंचरत्नात् ॥१०९।। एरिसभेदभासे, मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं । तं दढकरणारणमित्तं, पडिक्कमणादी' पवक्खामि ॥२॥
ईदग्भेदाभ्यासे मध्यस्थो भवति तेन चारित्रम् । तदृढीकरणनिमित्तं प्रतिक्रमणादि प्रवक्ष्यामि ।।२।। इस विध म पर भद का जब, अभ्यास जीव कर पाता है। मध्यस्थ मानव पूर्णतया, निज समरम अनभव पाता है। सस जो चारित होता है वह वीतराग कहलाता है। उसका करने हेतु प्रतित्रमणादि कह। यह जाता है ।।८।।
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(१०६) श्लोकार्थ-जो समस्त विषयों के आग्रह की चिन्ता से मुक्त हैं, द्रव्य गुणपर्यायात्मक अपने आन्मस्वरूप में जिन्होंने चिन को लगाया है, वे भव्य जीव अपने स्वभाव से भिन्न सम्पूर्ण विभावों को छोड़करके इन पंचरत्नों के निमिन से शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। .
भावार्थ-टीकाकार श्री मुनिराज ने भेदविज्ञान की भावनास्वरूप पूर्वोक्त पांच गाथाओं को पंचरत्न की संज्ञा दी है । क्योंकि इन पांच गाथा कथित भेदविज्ञान के द्वारा ही मुनिराज संपूर्ण विषय कषायों की चिन्ता से छूट सकते हैं और अपनी आत्मा में अपने आपको स्थिर कर सकते हैं । इसलिये जो भव्य इन पंचरत्न को ग्रहण करते हैं वे तीन लोक के माम्राज्य को हस्तगत कर लेने हैं ।
गाथा १२ अन्वयार्थ-[ ईदग्भेदाभ्यासे ] इसप्रकार के भेद का अभ्यास हो जाने पर [मध्यस्थो भवति] जीव मध्यस्थ होता है, [तेन चारित्रं] इसलिए चारित्र होता है ।
१. पडिक्कमणादि (क) पाठान्तर
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