________________
परमार्थ- प्रतिक्रमण अधिकार
[ २०५ विद्विसासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं शरीरगतबालाद्यवस्थानभेदं कुर्य, सहजचिद्विखासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं रागादिभेदभावकर्मभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासास्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं भावकम्मत्मिकषायचतुष्कं कुर्वे, सहचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । इति पंचरत्नांचितोपन्यासप्रपंचनसकलविभावपर्यायसंन्यासविधानमुक्तं भवतीति ।
- -. - -. . -- - - - - -- में शरीर में होने वाली बाल्य आदि अवस्थाओं के भदों को नहीं करता हूं सहज चैतन्य के विलासस्वरूप आत्मा का ही सम्यक् अनुभव करता हूँ। मैं रागादि भावस्वरूप भावकर्मों के भेदों को नहीं करता हूं, सहज चतन्य के विलासस्वरूप आत्मा का हो सभ्यप्रकार से चितबन करता हूं। में मात्रकमस्वरूप चार कषायों को नहीं (करता है, सहज चैतन्य के विलासस्वरूप अपनी आत्मा का ही सम्पप्रकार मे चितवन
करता है । । जस यहां कर्ता के विषय में घटित किया है एम ही वारीयता और : अनमोदनकर्ता के सम्बन्ध में भी घटित कर लेना चाहिए । )
___ इमप्रकार में पंचरत्न से गोभिन कशन के विस्तार से संपूर्ण विभावापायों के मन्यास-त्याग के विधान का कथन किया गया है ।
भावार्थ-यहां आचार्यों का कहना है कि यद्यपि ममारी जीवों के मंसार अवस्था में नरनारकादि पर्याय तथा गुणस्थानादि परिणाम और गगादि विभाब भाव विद्यमान हैं फिर भी शुद्धनिश्चयनय से ये कुछ भी जीव में नहीं है इसलिए यह चितवन करना चाहिए कि शुद्धनिश्चयनय से मैं इन नरनारकादि पर्यायों का विभाव भाव आदि का न कर्ता हूं. न कराने वाला हूं और न ही अनुमति देने वाला हुँ । में नो केवल चिञ्चतन्यस्वरूप अपनी शुद्ध आत्मा का ही अनुभव करने वाला हूं। इसप्रकार की भावना भाते-भाते ही एक दिन ऐसा आयेगा कि उस आत्मस्वरूप में पूर्णतन्मयता हो जावेगी और नभी मोहनीय कर्म का नाश होकर आत्मा में जान सूर्य का प्रकाश प्रगट हो जावेगा । इसलिए जब तक आत्मस्वरूप में पूर्णस्थिरता नहीं आती है तब तक यह । भावना भाते ही रहना चाहिए ।
[अब टीकाकार श्रीमनिराज इन पांचगन्नों का मूल्यांकन कराने हा प्रलोक कहते हैं-]