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नियमसार ख्यातचारिश्रत्य न मे निखिलसंप्रतिक्लेशहेतवः क्रोधमानमायालोभाः स्युः । अथामीषा विविधविकल्पाकुलानां विभावपर्यायाणां निश्चयतो नाहं कर्ता, न कारयिता वा भवामि, न चानुमंता वा कर्तृणां पुद्गलकर्मणामिति । नाहं नारकपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासास्मकमारमानमेव संचितये । नाहं तिर्यपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं मनुष्यपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं देवपर्यायं फुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । लाहं चतुर्दशमार्गणास्थानभेदं कुर्वे, सहचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं मिथ्यादृष्टधादिगुणस्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहमकेन्द्रियादिजीवस्थानभेदं कुर्वे, सहज----- - - - रूप सहज यथाख्यात चारिप्रवाले ऐसे मेरे में मकान संमार के क्लेश के कारणभून ऐसे क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं हैं ।
अब इन विविधविकल्पों-भेदों से व्याप्त सभी विभाव पर्यायों का निश्चयनय में में करने वाला नहीं हूं, कराने वाला नहीं हैं और करने वाले पुद्गल कर्मों का मैं अनुमोदन करने वाला भी नहीं हूं।
मैं नरकपर्याय को नहीं करता है, महज चैतन्य के विलासरूप अपनी आत्मा का ही मैं सम्यक्प्रकार से अनुभव करता हूँ। मैं निर्यचपर्याय को नहीं करता हूं, सहज चैतन्य के विलासरूप आत्मा का ही में सम्यकप्रकार से चितवन करता हूं। में मनुष्य पर्याय को नहीं करता हूं, सहज चैतन्य के विलासस्वरूप आत्मा का ही में सम्यकचितवन करता हूं । देवपर्याय को मैं नहीं करता हूं, महज चैतन्य के विलासस्वरूप ऐसी आत्मा का ही में सम्यक्प्रकार से चितवन करता हूँ ।।
। मैं चौदह मार्गणास्थान के भेदों को नहीं करता हूं, सहज़ चैतन्य के विलानस्वरूप आत्मा का ही मैं सम्यक्प्रकार से चिनबन करता हूं। मैं मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान के भेदों को करने वाला नहीं हूं, महज चैतन्य के बिलासस्वरूप आत्मा का ही सम्यकप्रकार से अनुभव करता हूं। मैं एकेन्द्रिय आदि चौदह जीवसमास के भेदों को करने वाला नहीं हं, महज चैतन्य के बिलामम्वरूप आत्मा का ही सम्यकप्रकार से अनुभव करता हूं।