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नियमसार
मैं बालक नहि मैं वृद्ध नहीं मैं नहीं तक हूं इस जग में। नह इनका कारण हो सकता यह सब पुदगल के रूप बने । नहि इन पर्यायों का कर्ता, नहि कभी कराने वाला हूं । नहि इनका अनुमोदन कर्ता में सबसे भिन्न निराला हूं ॥७६॥ में राग नहीं में द्वेष नहीं में मोह नहीं निश्चयनय से । मैं इनका कारण भी नहीं हूं वे होते हैं कर्मोदय से मैं नहि इनका कर्ता सच में नहि कभी कराने वाला हूं । नहि इनका अनुमोदन कर्ता, सुख मांति सुधारस वाला हूं ||८०||
में क्रोध नहीं मैं मान नहीं मैं नहि माया में लोभ नहीं । नहि इनका कर्ता नहीं कराने वाला नहीं अनुमोदक ही ।। ये सब कमदिय से होते और कर्म नही मेरे कुछ भी । में निश्चयन से पूर्ण शुद्ध नहि चहु ६१॥
अन शुद्धात्मनः सकलकर्तृत्वाभावं दर्शयति । बह्वारंभपरिग्रहाभावादहं तावनारकपर्यायो न भवामि । संसारिणो जीवस्य बह्वारंभपरिग्रहत्वं व्यवहारतो भवति अत एव तस्य नारका कहेतुभूत निखिलमोहरागद्वेषा विद्यन्ते न च मम शुद्धनिश्चयबलेन शुद्धजीवास्तिकायस्य । तिर्यक्पर्यायप्रायोग्यमायामिधाशुभकर्माभावात्सदा तिर्यक्
[ अहं क्रोधः मानः न ] मैं क्रोधरूप नहीं हूं मानरूप नहीं हूं, [ श्रहं माया च एव लोभः न भवामि ] मैं मायारूप नहीं हूं और मैं लोभरूप भी नहीं हूं, [ कर्ता न हि इनका करने वाला, कराने वाला और करते हुए कारपिता कर्तृणां श्रनुमंतान एव ] को अनुमोदना देने वाला भी नहीं हूँ ।
टीका- यहां शुद्ध आत्मा के संपूर्ण कर्तृत्व का अभाव दिखलाते हैं ।
बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह के अभाव से
नारकपर्यायरूप नहीं होता
हूं | संसारी जीव के व्यवहारनय से बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह होता है, अतएव उस संसारी जीव के नरक आयु के लिए कारणभूत संपूर्ण मोह, राग और द्वेष विद्यमान हैं, किन्तु शुद्धनिश्चय में शुद्धजीवास्तिकायस्वरूप मेरे में वे नहीं हैं । तिर्यंचपर्याय के योग्य माया से मिश्रित अशुभकर्म के अभाव से मैं सदा तिर्यचपर्याय के कर्तृत्व से