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ध्यवहारचारित्र अधिकार
[ १८६ भगवतां सिद्धिपरंपराहेतुभूतानां सिद्धपरमेष्ठिना स्वरूपमत्रोक्तम् । निरवशेषेखान्तर्मुखाकारध्यानध्येयविकल्पविरहितनिश्चयपरमशुक्लध्यानबलेन नष्टाष्टकर्म बंधाः । (सायिकसम्यक्त्वाद्यष्टगणपुष्टितुष्टाश्च । त्रितत्त्वस्वरूपेषु विशिष्टगुणाधारत्वात् परमाः । त्रिभुवनशिखरात्परतो गतिहेतोरभावात् लोकापस्थिताः । व्यवहारतोऽभूतपूर्वपर्यायप्रच्यपनामावाग्नित्याः । ईदृशास्ते भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिन इति ।
(मालिनी) व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजः स सिद्धः त्रिभुवनशिखरापनावचूडामणिः स्यात् । सहजपरमचिच्चिन्तामणौ नित्यशुद्धे निवसति निजरूपे निश्चयेनैव देवः ।।१०१।।
टोका-सिद्धि की प्राप्ति के लिए परम्परा से कारणभूत मे भगवान सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप का यहां कथन किया है ।
__ परिपूर्णरूप से अन्तम खाकार ध्यान और व्यय के विकल्प मे हिन जो निश्चय परम शुक्लध्यान है उस ध्यान के बल से आटक माँ कं वन्य समूह को जिन्होंने नष्ट कर दिया है । जो क्षायिक सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन. अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्यावाधत्व इन आठगुणों की पुष्टि मे संतुष्ट हैं । तीन तत्त्व के स्वरूपों में विशिष्ट गुणों के आधारभूत होने से जो परम हैं अर्थात् बहिस्तत्व अन्तस्तत्व और परमात्म तत्त्व इन तीन तत्त्वों में से अनन्तगुणों के आधारभूत होने से श्रेष्ठ परमात्मतत्त्व स्वरूप हैं। तीनलोक के गिम्बर से ऊपर गति हेतुक धर्मास्तिकाय का अभाव होने मे लोक के अग्रभाग (तन्वातत्रलय में विराजमान हैं। व्यवहारनय से अभूतपूर्व सिद्धपर्याय से प्रच्युत न होने से जो निन्य हैं-अविनाशी हैं । ऐसे वे भगवान् सिद्धपरमेष्ठी होते हैं ।
[अब टीकाकार श्रीपद्मप्रभ मुनिराज उभयनय की अपेक्षा सिद्धों के निवास स्थान को स्पष्ट करते हुए एक श्लोक कहते हैं, पुनः दो शनोको द्वारा उनके विशेष गुणों के रमरणपूर्वक उन्हें नमस्कार करते हैं--]
(१०१) इलोकार्थ-व्यवहारनय से ज्ञान के पुजस्वरूप वे सिद्ध भगवान् त्रिभुवन शिखर की शिखा के चूड़ामणिस्वरूप हैं, निश्चयनय से वे ही देव सहजपरम