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नियमसार
कम्मबंधा, प्रट्टमहागुणसमण्णिया' परमा । लोयग्गfoal रिपच्चा, सिद्धा ते एरिसा होंति ॥ ७२ ॥ |
नष्टाद्धकर्मरन्थ अष्टमहागुणसमन्विताः परमाः । - लोकानस्थिता नित्या: सिद्धास्ते ईदृशा भवन्ति ॥७२॥
जिनो समस्त अष्ट कर्मबंध नाशिया 1
दर अष्ट महागुण समेत मुक्ति पा लिया || जो नित्य हैं त्रिलोक्य शिखर पर विराजते । ऐसे वे सिद्ध उनको नम्र कर्म नाशते ॥ ७२ ॥
के विशेषार्थ - यहां पर टीकाकार श्रीपद्मप्रभ मुनिराज ने अरिहंत भगवान् लक्षण के अनन्तर बहुत ही मधुर शब्दों में पांच इलोकों द्वारा श्री पद्मप्रभ भगवान् की स्तुति की है। इसमें अनेकों गुणों के वर्णन के साथ-साथ मुनिराज ने 'पदांतवर्ण यमक' अलंकार के द्वारा प्रत्येक श्लोक में साहित्य रस को भर दिया है। प्रथम श्लोक में प्रत्येक पद के अंत में 'त्र' शब्द का प्रयोग है, द्वितीय श्लोक में सभी पदों के अंत में 'ज' शब्द का प्रयोग है, तृतीय श्लोक में सर्वत्र पदों में 'प' शब्द का प्रयोग है, चतुर्थ श्लोक के प्रत्येक पद में 'क्ष' शब्द प्रयुक्त हुआ है एवं पांचवें श्लोक के प्रत्येक पद के अन्त में 'श' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसप्रकार की रचना से टीकाकार की सर्वतो मुखी प्रतिभा का अवलोकन होता है ।
गाया ७२
अन्वयार्थ – [ नष्टाष्टकर्मबन्धाः ] आठ कर्मों के बन्ध को जिन्होंने नष्ट कर दिया है, [ अष्टमहागुणसमन्विताः ] जो आठ महागुणों से समन्वित हैं, [ परमाः ] परम हैं - सर्वश्रेष्ठ हैं, [ लोकाप्रस्थिता: ] लोक के अग्रभाग में विराजमान हैं, और [ नित्या: ] नित्य हैं [ ईदृशास्ते सिद्धाः भवंति ] ऐसे वे सिद्ध भगवान् होते हैं ।
१. समशिया ( क ) पाठान्तर