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नियमसार मुनिजनकपः भागाहियमिशः सकलहितचरित्रः श्रीसुसीमासुपुत्रः ॥१६॥
(मालिनी) स्मरकरिमृगराजः पुण्यकंजाहिराजः सकलगुणसमाजः सर्वकल्पावनीजः । स जयति जिनराजः प्रास्तदुःकर्मबीजः पवनुतसुरराजस्त्यक्तसंसारभूजः ॥७॥
(मालिनी) जितरतिपतिचापः सर्वविद्याप्रदीपः परिणतसुखरूपः पापकीनाशरूपः । हतभवपरितापः श्रीपदानम्रपः स जयति जितकोपः प्रह्वविद्वत्कलापः ॥९॥
निवासगृह है, जो पंडितरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं, जो मुनिजनरूपी वन-उद्यान के लिए चैत्रमास-बसंतऋतु के समान हैं, जो कर्मरूपी सेना के लिए सत्र हैं और जिनका चारित्र सभी जीवों का हित करने वाला है, में श्री मसीमा के मुपुत्र-पद्मप्रभ भगवान् जयशील होते हैं ।।६।।
(६७) श्लोकार्थ—जो कामदेवरूपी हाथी के मद को नष्ट करने के लिए सिंह हैं, जो पुण्यरूपी कमल को विकसित करने के लिए दिवाकर हैं, जो सकलगुणों के समुदायरूप हैं, जो संपूर्ण कल्पित-इच्छित वस्तुओं को प्रदान करने के लिए कल्पवृक्ष हैं, जो दुष्टकर्मों के बीज नष्ट कर चुके हैं, जिनके चरणों में सुरेन्द्र नमन करते हैं
और जिन्होंने संसाररूपी वृक्ष का ( आश्रय ) त्याग कर दिया है ऐमे श्री पद्मप्रभ जिनराज जयशील हो रहे हैं ।।१७।।
(६८) श्लोकार्थ--जिन्होंने कामदेव के धनुष को जीत लिया है, जो संपूर्ण विद्याओं के प्रदीप-प्रकाशक हैं, जो सुखस्वरूप से परिणत हो रहे हैं, जो पाप को नाश करने के लिए यमराज स्वरूप हैं, संसार के संताप को जिन्होंने नष्ट कर दिया है,