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तथा हि
नियमसार
( अनुष्टुभ् ) "उत्सृज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम् । स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ॥"
( अनुष्टुभ् ) अपरिस्पन्दरूपस्य परिस्पन्दात्मिका तभुः । व्यवहाराद्भवेन्मेऽस्त्यजामि विकृति तनोः ॥६५॥ घणघाइकम्मर हिया, केवलणाणाइपरमगुणसहिया । चोत्तिसप्रदिसयजुत्ता, धरिहता एरिसा होंति ॥७१॥
घनघातिकर्मरहिताः सहिताः । चतुस्त्रिशदतिशययुक्ता अर्हन्त ईदृशा भवन्ति ॥ ७१ ॥
अर्थ- काय की क्रियाओं को और भय के कारणस्वरूप भावों को छोड़ करके जो व्याकुलता रहित अपनी आत्मा में स्थित रहता है, वह कायोत्सर्ग कहलाता है।"
उसी प्रकार - | श्री टीकाकार निश्चयकायगुप्ति को प्राप्त करने का उपदेश देते हुए श्लोक कहते हैं— ]
(६५) श्लोकार्थ - अपरिस्पंदनस्वरूप आत्मा का शरीर परिस्पंदस्वरूप है वह शरीर व्यवहारतय से मेरा है अतः में शरीर के विकार का त्याग करता हूँ । अर्थात् आत्मा अविचलस्वरूपी है, यह परिस्पंदनरूप शरीर व्यवहारनय से ही मेरा है निश्चयrय से मेरा नहीं है, इसीलिए मैं इस शरीर की क्रियाओं को छोड़ रहा हूं शरीर की क्रियाओं को छोड़कर शरीर से निर्मम होकर आत्मा के स्वरूप में स्थिर हो जाना ही निश्चयकायगुप्ति है ॥ ९५ ॥
गाथा ७१
श्रन्वयार्थ – [ घनघातिकर्मरहिताः ] निविड़ ऐसे चार घातिया कर्मों से रहित, [ केवलज्ञानादिपरमगुणसहिताः ] केवलज्ञान आदि परम गुणों से सहित