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नियमसार
(पार्या) भविनां भवसुखधिमुखं त्यक्त सर्वाभिषंगसंबंधात् । मंच विमंक्ष्व निजात्मनि वंद्यं नस्तन्मनः साघोः ॥१०६॥ एरिसयभावणाए, ववहारणयस्स होदि चारित्तं । पिच्छयणयस्स चरणं, एत्तो उड्ढं पवक्खामि ॥७६।।
ईदग्भावनायां व्यवहारनयस्य भवति चारित्रम् । निश्चयनयस्य चरणं एतदूर्ध्व प्रवक्ष्यामि ॥७६।। इस विध से जो तेरह प्रकार चरित है सही । श्री पंचगुरू भक्ति की भी भावना कहीं ।। व्यवहार नय से होता चारित्र है ग्रही । आगे कहूँगा चारित जो निश्चयनय से हो ।।७६।।
का अवलोकन करते हैं वे साधु नहीं कहे जा सकते है, किन्तु फिर भी ये साधु कहलाते हैं 1 मतलब मञकर्म रहित जो मुक्त अवस्था है उसकी प्राप्ति की तरफ जिनका उपयोग लगा हुआ है । ऐसे वे साधु परमेष्टी होते हैं ।
[अन्न टीकाकार मुनिराज साधुपरमेष्ठी की वंदना करते हुए एक श्लोक कहते हैं-]
(१०६) श्लोकार्थ-जो संसारी जीवों के संसार के मुख से विमुख है और सर्व संग के सम्बन्ध से रहित है वह साधु का मन हम सभी के लिए बंदनीय है। हे साधी ! आप उस मन को शीघ्र ही अपनी आत्मा में निमग्न करो ।।१०६।।
गाथा ७६ अन्वयार्थ-[ ईग्भावनायां ] ऐसी पूर्वोक्त भावना के होने पर [ व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनय का [चारित्रं भवति चारित्र होता है । [एतदुच] इसके आगे [निश्चयनयस्य ] निश्चयनय के [चारित्रं] चारित्र को [प्रवक्ष्यामि] कहूंगा।