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व्यवहारचारिय अधिकार
[ १६७ व्यवहारचारित्राधिकारन्याख्यानोपसंहारनिश्चयचारित्रसूचनोपन्यासोऽयम् । । इत्यंभूतायां प्रगुक्तपंचमहावतपंचसमितिनिश्चयव्यवहारत्रिगुप्तिपंचपरमेष्ठिध्यानसंयुक्तायाम् अतिप्रशस्तशुभभाबनायां व्यवहारनयाभिप्रायेण परमचारित्रं भवति, वक्ष्यमाणपंचमाधिकारे परमपंचमभावनिरतपंचमगतिहेतु भूतशुद्धनिश्चयनयात्मपरमचारित्रं द्रष्ट व्यं भवतीति । तथा चोक्त मार्गप्रकाशे
• (वंशस्थ ) "कुसूलगर्भस्थितबीजमोदरं भवेद्विना येन सुदृष्टिबोधनम् । तदेव देवासुरमानवस्तुतं नमामि जैन चरणं पुनः पुनः ।।"
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टीका-यह व्यवहार चारित्राधिकार के व्याख्यान का उपसंहार और निश्चगचारित्र को सूचना का कथन है ।
इसप्रकार से पूर्व में कथित पांचमहाव्रत, पांचसमिति, निश्चय-व्यवहाररूप नीनगुप्ति तथा पांचपरमेष्ठी के ध्यान से संयुक्त अतिप्रशस्त शुभ भावना के होने पर व्यबहारनय के अभिप्राय से परम चारित्र होता है । अब आगे कहे जाने वाले पांचवें अधिकार में परम पंचमभाव-पारिणामिक भाव में लीन और पंचमगति के लिये कारणभूत ऐसे शुद्धनिश्चयनयस्वरूप परम चारित्र को देखना चाहिए, ऐसा कथन है ।
इसीप्रकार मार्गप्रकाश में कहा है
श्लोकार्थ-"जिसके बिना-जिस चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दोनों कोठार में रखे हुये बीज के सदृश है, सर-असर और मनृप्यों के द्वारा स्तुति को प्राप्त और जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कथित उसी चारित्र को मैं पुनः पुनः नमस्कार करता हूं।"
भावार्थ-चारित्र के बिना सम्यक्त्व और ज्ञान गोदाम के बीज के समान हैं। चारित्र के द्वारा वे अंकुरित होकर मुक्तिरूपी फलरूप से फलित हो जाते हैं अर्थात् चारित्र से सहित हुये ये दर्शनज्ञान मुक्ति को प्राप्त करा देते हैं ।