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नियमसार
वावारविप्पमुक्का, 'चउन्विहाराहणासयारत्ता। णिग्गंया रिणम्मोहा, साहू दे एरिसा होति ॥७॥
च्यापारविप्रमुक्ताः चतुर्विधाराधनासदारक्ताः । निर्ग्रन्था निर्माहाः साधषः एतादृशा भवन्ति ॥७॥ जो साधु सकल बाह्य के व्यापार से रहित । जो चार विध आराधना में लीन रहें नित ।। निग्रंथ व निमंहि यथा जातरूपधर ।
ऐसे सभी साधू को नम शीश झुकाकर ॥१७५।। निरन्तराखंडितपरमतपश्चरणनिरतसर्वसाधुस्वरूपाख्यानमेतत् । ये महान्तः परमसंयमिनः त्रिकालनिरावरणनिरंजनपरमपंचमभावभावनापरिणताः अत एव समस्तबाह्यव्यापारविप्रमुक्ताः । ज्ञानदर्शनचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधाराधनासदानु- - -
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-- -- - गाथा ७५ अन्वयार्थ - [ व्यापारविप्रमुक्ताः ] च्यापार-बाह्यव्यापार से रहित हैं. [ चतुविधाराधनासदारक्तः ] चारप्रकार की आराधनाओं में हमेशा लंग हये हैं, [निर्मथाः निर्मोहाः] निग्रंथ और निर्मोह हैं [एतादृशाः साधवः भवंति] ऐसे माधुगण । होते हैं।
टोका--निरंतर अवंडित परम तपश्चरण में निरत सर्व साधु के स्वरूप का यह कथन है।
__ जो महान परमसंयमी त्रिकाल निगवरण निरंजन परम पारिणामिकभाव को , भावना से परिणत हैं. इसलिये समस्त बाह्यव्यापार-बाह्यक्रियाओं से रहित है । ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, चारित्राराधना और परम तपश्चरणआराधना नामकी चार आराधनाओं में सदा अनुरक्त हैं, बाह्य और अभ्यन्तर समस्त परिग्रह के आग्रह से
१. चोविहार (क) पाठान्तर ।