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व्यवहारचारित्र अधिकार जो तीन रत्न से समेत नानवेष है । जिन राजकथित तत्वका दें सट्टादेश हैं ।। निष्कांक्षभावयुग्म में ही दूर मुनि है।
मे बे उपाध्याय सुविद्या के धनी हैं ।।3।। अध्यापकाभिधानपरमगुरुस्वरूपाख्यानमेतद् । अविचलिताखंडाद्वंतपरमचिद्रूपश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानशुद्धनिश्चयस्वभावरत्नत्रयसंयुक्ताः । जिनेंद्रवदनारविंदविनिर्गतजीवादिसमस्तपदार्थसार्थोपदेशशूराः । निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नपरमवीतरागसुखामृतपानोन्मुखास्तत एव निष्कांक्षाभावनासनाथाः। एवंभूतलक्षणलक्षितास्ते जैनानामुपाध्याया इति ।
(अनुष्ट्र) रत्नत्रयमयान् शुद्धान भव्यांभोजदिवाकरान् । उपदेष्ट नुपाध्यायान नित्यं वंदे पुनः पुनः ।।१०।। --
- - --- शर. [ नि:कांक्षभावसहिताः ] निःकांक्षितभाव से महिन, | ईदशा उपाध्याया भवंति] मे उपाध्याय होते हैं।
कोका- अध्यापक नामक परमगुरु के स्त्रमा का यह वथन है ।
अविलित, अखंड, अद्वैत, परम चैतन्यस्त्रम्प का श्रद्धान. ज्ञान और अनुष्यानरूप शूद्धनिश्चयस्वभाव रत्नत्रय से जो साहित हैं। जिनेन्द्र भगवान् के मुख कमल से निकले हए जो जीवादिपदार्थों के समूह, उसके उपदेश में जो शूर हैं। संपूर्ण परिग्रह के परित्यागलक्षण निरंजन निज परमात्मतत्त्व की भावना में उत्पन्न हुआ जो परम वीतरागसुखरूप अमृत: उसका पान करने वाले हैं और इसीलिये निष्कांक्ष भावना से सहित हैं। जो इन उपर्युक्त लक्षणों से लक्षित होते हैं वे जैनों के उपाध्यायः परमेष्ठी होते हैं।
[अब टीकाकार उपाध्याय परमेष्ठी की बंदना करते हुए श्लोक कहते हैं-]
(१०५) श्लोकार्थ--जो रत्नत्रयमय हैं, शुद्ध हैं. भव्यजनरूपी कमलों के लिये दिबाकर हैं, उपदेश देने वाले हैं ऐसे उपाध्याय गुरुवों को मैं नित्य ही पुनः पुनः चंदन करता हूं।