________________
ध्यवहारचारित्र अधिकार
[ १८५ घन घातिकर्म पात के सर्वज हो गये । कैवल्य ज्ञान बादि परम गुण सहित भये ।। चौंतीस अतिशयों से युक्त देव हमारे ।
ऐसे श्री अरिहंत हमें भाव ग उवार ।।७१।। भगवतोऽर्हत्परमेश्वरस्प स्वरूपाख्यानमेतत् । आत्मगुणधातकानि घातिकर्माणि धनरूपाणि सान्द्रीभूतात्मकानि ज्ञानदर्शनावरणान्तरायमोहनीयानि तैविरहितास्तथोक्ताः । प्रागुक्तघातिचतुष्कप्रध्वंसनासादितत्रैलोक्यप्रक्षोभहेतुभूतसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलशक्तिकेवलसुखसहिताश्च । निःस्वेदनिर्मलादिचतुस्त्रिशदतिशयगुणनिलयाः ईदृशा । भवन्ति भगवन्तोऽर्हन्त इति ।
जयति विदितगात्रः स्मेरनी रेजनेनः सुकृतनिलयगोत्रः पण्डिताम्भोजमित्रः ।
[ चतुस्त्रिशदतिशययुक्ता ईदृशा अहंतः भवंति ] और चानीग अतिशयों से युक्त मे - अहंत भगवान् होते हैं।
टीका--भगवान् अहंत परमेश्वर के रवरूप का यह कथन हैं 1
आत्मा के गुणों के घात करने वाले कर्म घानिकर्म कहलाते हैं, गाद मान्द्री| भूत-निविड़ को घनरूप कहते है, ऐसे ये ज्ञानावरण, दर्शनावराण, अंतराय और मोहनीय
ये चार कर्म हैं, अर्हत भगवान इनसे रहित होते हैं। इन उपर्युक्त चार घातिया को के प्रध्वंस कर देने से प्राप्त, ऐसे तीनों लोकों में प्रक्षोभ-आश्चर्य के कारणभूत जो सकल विमल केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य और केवलमुख इन चार अनन्त चतुष्टयों से सहित हैं । और जो पसीना रहित, मलरहित आदि चौंतीस अतिशय गुणों के निवासगृह हैं ऐसे भगवान् अहंत परमेष्ठी होते हैं।
[अब टीकाकार अर्हन्त के गुणों को लवमात्र वर्णन करते हुए पांच श्लोकों 1 के द्वारा श्री पद्मप्रभ भगवान् की स्तुति करते हैं-]
(8) श्लोकार्थ-जिनका शरीर प्रसिद्धि को प्राप्त-परमौदारिक है, खिले हये कमल के समान जिनके नेत्र हैं, जिनका गोत्र-तीर्थकर पद अथवा गोत्र पुण्य का
_